सुनील कुमार झा
जितने
समृद्ध इतिहास के लिए भारत अपने आप में जाना जाता है उससे कहीं ज्यादा इस बात के
लिए जाना जाता है कि यहाँ के इतिहास को हमेशा तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता रहा है
। ऐसा ही कुछ हुआ है बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास के साथ भी । बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के संबंध में जो मान्य इतिहास है उसमें इस बात की
कहीं चर्चा नहीं है कि इसकी स्थापना कैसे हुई और उसके लिए क्या-क्या पापड़ बेलने
पड़े । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की गलियों से लेकर संसद के सैंट्रल हॉल तक
में लगी मालवीय जी की मूर्ति बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में
दिख जाएगी लेकिन इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता बिहार के सपूत दरभंगा के महाराजा
रामेश्वर सिंह का जिक्र तक नहीं मिलेगा जिनके बिना इस हिन्दू विश्वविद्यालय की
कल्पना तक नहीं की जा सकती है । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की इतिहास पर लिखी गई
एकमात्र किताब जो स्थापना के कई वर्षों बाद 1936 में छपी थी और इसे संपादित किया
था बनारस हिन्दू विश्वविद्याल के तत्कालीन कोर्ट एंड कॉउसिल (सीनेट) के सदस्य वी
सुन्दरम् ने । सुन्दरम की इस किताब को पढ़कर यही कहा जा सकता है कि उन्होंने जितना
बीएचयू का इतिहास लिखा है उससे कहीं ज्यादा इस किताब में उन्होंने बीएचयू के
इतिहास को छुपाया या मिटाया है । यह बात साबित होती है बीएचयू से संबंधित
दस्तावेज से । बीएचयू के दस्तावेजों की खोज करने वाले तेजकर झा के अनुसार बीएचयू
की स्थापना के लिए चलाये गये आंदोलन का नेतृत्व पंडित मालवीय ने नहीं बल्कि
दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह के हाथों में था । जिसका जिक्र बीएचयू के वर्तमान
लिखित इतिहास में कहीं नहीं मिलता है । बीएचयू के वर्तमान लिखित इतिहास के संबंध
में श्री झा बताते हैं कि वी सुन्दरम् उस समय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के
कोर्ट एंड कॉउसिल के सदस्य थे और उस समय के कुलपति पंडित मदन मोहन मालविय जी के
अनुरोध पर जो चाहते थे कि बनारस हिन्दू विश्चविद्यालय का एक अधिकारीक इतिहास लिखा
जाना चाहिये के कारण इस किताब को संपादित करने का जिम्मा लिया । और अंतत: यह किताब
‘’बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी 1905-1935’’ रामेश्चर
पाठक के द्वारा तारा प्रिटिंग वर्क्स, बनारस से मुद्रित
हुआ ।
यह
पुस्तक बिकानेर के महाराजा गंगा सिंह जी के उस वक्तव्य को प्रमुखता से दिखाती है
जब उन्होनें पहली बार मदन मोहन मालविय को इस विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप
में सम्मान दिया था । यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि बिकानेर के महाराजा का इन
सब परिदृष्य में पदार्पण 1914-15 में हुआ था जबकि विश्वविद्यालय की परिकल्पना और
प्रारूप 1905 से ही शुरू हो गयी थी । पुस्तक के पहले पन्ने पर लॉर्ड हॉर्डिग के उस
भाषण का अंश दिया गया है जिसमे वो विश्वविद्यालय की नींव का पत्थर रखने आये थे
। लेकिन उनकी पंक्तियों में कहीं भी किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया गया है ।
चौथे पैराग्राफ में उस बात की चर्चा की गई थी कि नींव के पत्थर के नीचे एक कांस्य
पत्र में देवी सरस्वती की अराधना करते हुए कुछ संस्कृत के श्लोक लिखे गये थे ।
पांचवे पैराग्राफ में लिखा गया था कि
"The
prime instrument of the Divine Will in this work was the Malaviya Brahmana, Madana
Mohana, lover of his motherland. Unto him the Lord gave the gift of speech, and
awakened India with his voice, and induced the leaders and the rulers of the
people unto this end.”
और इसलिए ये प्रसिद्ध हो गया कि मालवीय
जी ही इस विश्वविद्यालय के एकमात्र संस्थापक हैं ।
किताब
के छट्ठे पैराग्राफ में संस्कृत में मालवीय जी ने बिकानेर के महाराजा गंगा सिंह जी, दरभंगा के महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह जी के साथ कॉंउसलर सुंदर लाल,
कोषाध्यक्ष गुरू दास, रास विहारी, आदित्या राम और लेडी वसंती की चर्चा की है । साथ ही युवा वर्गों के
कार्यों और अन्य भगवद् भक्तों का जिक्र किया है जिन्होनें कई प्रकार से इस
विश्वविद्यालय के निर्माण में सहयोग दिया । इस पैराग्राफ में रामेश्वर सिंह के नाम
को ‘अन्य भगवद् भक्तों’ के साथ कोष्टक
में रखा था जिन्हाने सिर्फ किसी तरह से मदद की थी । ऐनी बेसेंट का जिक्र इस अध्याय
में करना उन्होंने जरूरी नहीं समझा ।
जबकि
1911 में छपे हिन्दू विश्वविद्याल के दर्शनिका के पेज 72 में लेखक ने इस
विश्वविद्यालय के पहले ट्रस्टी की जो लिस्ट छापी है उसमे उपर से दंरभगा के महाराज
रामेश्वर सिंह, कॉसिम बजार के महाराजा, श्री एन सुब्बा रॉव मद्रास,
श्री वी. पी. माधव राव बैंगलौर, श्री
विट्ठलदास दामोदर ठाकरे बॉम्बे, श्री हरचन्द्र राय विशिनदास कराची, श्री आर. एन.
माधोलकर अमरोठी, राय बहादूर लाला लालचंद लाहौर, राय बहादूर हरिश्चन्द्र मुल्तान, श्री राम शरण दास
लाहौर, माधो लाल बनारस, बाबू मोती चंद
और बाबू गोविन्द दास बनारस, राजा राम पाल सिंह राय बरेली, बाबू गंगा प्रसाद
वर्मा लखनउ, सुरज बख्श सिंह सीतापुर, श्री बी. सुखबीर मुजफ्फरपुर,
महामहोपाध्याय पंडित आदित्या राम भट्टाचार्य इलाहाबाद, डॉ सतीश चन्द्र बैनर्जी इलाहाबाद, डॉ तेज बहादूर
सापरू इलाहाबाद और पंडित मदन मोहन मालविय इलाहाबाद का नाम लिखा गया था ।
अध्याय
तीन जो पेज नंबर 80 से शुरू होता में इस बात की चर्चा कही नहीं की गई है कि किस
प्रकार ऐनी बेसेंट ने बनारस में अपने केन्द्रीय हिन्दू महाविद्यालय को ‘द यूनीवर्सिटी ऑफ इंडिया’ में तब्दील करने की योजना
बनाई । ना ही एक भी शब्द में उस ‘’शारदा विश्वविद्यालय’’ का जिक्र किया जिसका सपना महाराजा रामेश्वर सिंह ने भारत के हिन्दू
विश्वविद्याय के रूप में देखा था और जिसको लेकर उन्होंने पुरे भारत वर्ष में
बैठकें भी की थी । इस पुस्तक में सिर्फ इस बात की चर्चा हुई की किस प्रकार अप्रैल
1911 में पंडित मालवीय जी, श्रीमती ऐनी बैसेंट जी से
इलाहाबाद में मिले थी और प्रस्तावों पर सहमती के बाद किस प्रकार डील फाइनल हुई थी
। ( इस पुस्तक में ना तो बैठकों की विस्तृत जानकारी दी गई है ना ही समझौते के
बिन्दूओ को रखा गया है) उसके बाद वो महाराजा रामेश्वर सिंह से मिले और तीनो ने
मिलकर धार्मिक शहर बनारस में एक विश्वविद्यालय खोलने का फैसला किया । पृष्ठ संख्या
80-81 पर साफ लिखा गया है कि यह कभी संभव नहीं हो पाता कि तीन लोग एक ही जगह,
एक ही समय तीन यूनीवर्सीटी खोल पाते और उनको सही तरीके से संचालित
कर पाते लेकिन लेखक ने उस जगह ये बिल्कुल भी जिक्र नहीं किया की उन तीनों की आर्थिक,
राजनैतिक, सामाजिक और उस समय के सरकार में
पहुंच कितनी थी । खैर...
प्राप्त
दस्तावेज से पता चलता है कि तीनों के बीच सहमति के बाद महाराजाधिराज दरभंगा की
अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर लिया गया और तत्कालीन वॉयसराय और शिक्षा सचिव
को पत्राचार द्वारा सूचित कर दिया गया गया । महाराजधिराज ने अपने पहले पत्र जो 10
अक्टूबर 1911 को अपने शिमला स्थित आवास से शिक्षा सचिव श्री हरकॉर्ट बटलर को
लिखे थे में लिखा था - भारत के हिन्दू
समुदाय चाहते हैं कि एक उनका एक अपना विश्चविद्यालय खोला जाय । बटलर ने प्रतिउत्तर
में 12 अक्टूबर 1911 को महाराजा रामेश्वर सिंह को इस काम के लिए शुभकमानाएं दी और
प्रस्तावना कैसे तैयार की जाए इसके लिए कुछ नुस्खे भी दिये (पेज 83-85) । इस
पुस्तक के पेज संख्या 86 पर लिखा गया है कि इस विश्वविद्यालय को पहला दान
महाराजाधिराज ने ही 5 लाख रूपये के तौर पर दिया । उसके साथ खजूरगॉव के राणा सर शिवराज
सिंह बहादूर ने भी एक लाख 25 हजार रूपये दान दिये थे ।
22
अक्टूबर 1911 को महाराजा रामेश्वर सिंह, श्रीमती एनी
बेसेंट, पंडित मदन मोहन मालवीय और कुछ खास लोगों ने इलाहाबाद
में एक बैठक की जिसमें ये तय किया गया कि इस विश्वविद्यालय का नाम ‘’हिन्दू विश्चविद्यालय’’ रखा जाएगा । यह दस्तावेज इस
बात का भी सबूत है कि मदन मोहन मालवीय जी ने अकेले इस विश्वविद्यालय का नाम नही
रखा था ।
28
अक्टूबर 1911 को इलाहाबाद के दरभंगा किले में माहाराजा रामेश्वर सिंह की अध्यक्षता
में एक बैठक का आयोजन हुआ जिसमें इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के संविधान के बारे
में एक खाका खीचा गया ( पेज संख्या 87) । पेज संख्या 90 पर इस किताब ने मैनेजमेंट कमीटी
की पहली लिस्ट दिखाई है जिसमें महाराजा रामेश्वर सिंह को अध्यक्ष के तौर पर दिखाया
गया है और 58 लोगों की सूची में पंडित मदन मोहन मालवीय जा का स्थान 55वां रखा गया
है ।
इस
किताब में प्रारंभिक स्तर के कुछ पत्रों को भी दिखाया गया है जिसमें दाताओं की
लिस्ट, रजवाड़ों के धन्यवाद पत्र, और साथ ही विश्वविद्यालय
के पहले कुलपति सर सुंदर लाल के उस भाषण को रखा गया है जिसमें उन्होंने पहले
दीक्षांत समारोह को संबोधित किया है ।
अपने संभाषण में श्री सुंदर जी ने महाराजा रामेश्वर सिंह, श्रीमती एनी बेसेंट और पंडित मदन मोहन मालवीय जी के अतुलित योगदान को
सराहा है जिसके बदौलत इस विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ । यहाँ गौर करने वाली बात
ये भी है कि अपने संभाषण में उन्होंने कभी भी पंडित मदन मोहन मालवीय जी को
संस्थापक के रूप में संबोधित नही किया है ( पेज 296)। इस किताब के दसवें अध्याय
में पंडित मदन मोहन मालवीय जी के उस संबोधन को विस्तार से रखा गया है जिसमें
उन्होंने दिक्षांत समाहरोह को संबोधित किया था । यह संबोधन इस मायने में भी
गौरतलब है कि इस पूरे भाषण में उन्होंने एक भी बार महाराजा रामेश्वर सिंह, श्रीमती ऐनी बेसेंट, सर सुंदर लाल आदि की नाम
बिल्कुल भी नहीं लिया । उन्होंने सिर्फ लॉर्ड हॉर्डिग, सर
हरकॉर्ट बटलर और सभी रजवाड़ो के सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद दिया ।
आज
भारत के विभिन्न पुस्तकालयों, आर्काइव्स और में 1905
से लेकर 1915 तक के बीएचयू के इतिहास और मीटींग्स रिपोर्ट को खंगालने से यह पता
चलता है कि जो भी पत्राचार चाहे वो वित्तीय रिपोर्ट, डोनेशन
लिस्ट, शिक्षा सचिव और वायसराय के साथ पत्राचार, रजवाड़ाओं को दान के लिए पत्राचार हो यो अखबार की रिपोर्ट हो या निजी
पत्र आदि ऐसे तमाम दस्तावेज है जिसमें ना ही पंडित मदन मोहन मालवीय जी को इसके
संस्थापक के रूप में लिखा गया है ना ही कोई भी पत्र सीधे तौर पर उन्हे लिखा गया है
। पत्राचार के कुछ अंश जो इसमाद के पास है उससे साफ साबित होता है कि सभी पत्राचार
महाराजा रामेश्वर सिंह जी को संबोधित कर लिखे गये हैं । ऐसे में यह सवाल उठना
स्वभाविक है कि बीएचयू के लिखित इतिहास में जहां रामेश्वर सिंह को महज एक दानदाता
के रूप में उल्लेखित किया गया है और तमाम दानदाताओं की सूची के बीच रखा गया है ।
ऐसे व्यक्ति को इन तमाम दस्तावेजो में बीएचयू के आंदोलन के नेतृत्वकर्ता या फिर
बीएचयू के आधिकारीक हस्ताक्षर के रूप में
संबोधन कैसे किया गया है । किसी संस्थान के महज दानकर्ता होने के कारण किसी
व्यक्ति के साथ ना तो ऐसे पत्राचार संभव है और न हीं ऐसा संबोधन संभव है । अगर इस
आंदोलन के नेतृत्वकर्ता कोई और थे तो पत्राचार उनके नाम से भी होने चाहिये थे ।
वैसे ही अगर दानकर्ताओं के लिए यह एक संबोधन था तो ऐसे संबोधन अन्य दानदाताओं के
लिए भी होने चाहिये थे । लेकिन ऐसे कोई दस्तावेज ना तो बीएचयू के पास उपलब्ध है और
ना ही किसी निजी संग्रहकर्ता के पास । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या रामेश्वर सिंह
महज एक दानदाता थे या फिर उन्हें दानदाता तक सिमित करने का कोई सूनियोजित प्रयास
किया गया ।
तमाम
दस्तावेजों को ध्यान रखते हुए यह कहा जा सकता है कि बीएचयू का वर्तमान इतिहास उसका
संपूर्ण इतिहास नहीं है और उसे फिर से लिखने की आवश्यकता है । अपने सौ साल के
शैक्षणिक यात्रा के दौराण बीएचयू ने कभी अपने इतिहास को खंगालने की कोशिश नहीं
की । 2016 में बीएचयू की 100वीं वर्षगांठ मनाया जायेगा । ऐसे में बीएचयू के इस
अधूरे इतिहास को पूरा करने की जरूरत है ।
(मूल
आलेख तेजकर झा) साभार : www.esamaad.com
No comments:
Post a Comment