इसमाद

Saturday, June 1, 2019

प्राचीन मिथिला में पोखर परम्परा

 हेतुकर झा
प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए। इसलिये यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पोखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया। यज्ञ के पश्चात् पूरे समाज को उस पोखर के जल और मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छन्द उपयोग का अधिकार हो जाता है।
.जल संचय के लिए मानवीय प्रयास से खुदवाये जाने वाले पोखर-सरोवर भारतीय जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पक्ष से इतिहास के आरम्भ से जुड़े हैं। इसकी चर्चा ऋग्वेद में भी है। जब से गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र की रचना/ संकलन प्रारम्भ हुआ (800 से 300 ई.पू की अवधि में) तब से इसे धार्मिक मान्यता और संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इन सूत्रों के अनुसार किसी भी वर्ण या जाति के कोई भी व्यक्ति, पुरुष या स्त्री पोखर खुदवा सकते हैं और उसका यज्ञ करवा कर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण हेतु उसका उत्सर्ग कर सकते हैं। विष्णु धर्मसूत्र ऐसे व्यक्तियों को बहुत पुण्य का भागी मानता है। संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि वाण अपनी कृति कादम्बरी (सातवीं शताब्दी) में ऐसे कार्य को सर्वाधिक महत्व का मानते हैं। मत्स्यपुराण और अग्निपुराण (300-600 ई.पू) में इस प्रसंग पर काफी चर्चा की गयी है। लोक कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाये गये जल कोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है:
कूपगोलाकर, जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे जल निकालने के लिए किसी यंत्र जैसे डोल डोरी का प्रयोजन हो,
वापी (बहुत छोटा पोखर)चौकोर, लम्बाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तब पांव के सहारे पहुंचा जा सके,
पुष्करणी (छोटा पोखर)गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो और
तड़ाग (पोखर)चौकोर, जिसकी लम्बाई 300 से 450 फीट तक हो।
मत्स्यपुराण मे इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे हदक नाम दिया गया है, जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो। धर्मशास्त्र के बाद की सभी रचनाओं में विभिन्न क्रमों में विभिन्न प्रकार के पोखरों की लम्बाई-चौड़ाई दी गई है, पर पोखर का उत्सर्ग करने के प्रसंग में सभी एकमत हैं। पुराणों के पश्चात् इसके उत्सर्ग यज्ञ के लिए अलग ग्रन्थ की रचना आरम्भ की गयी।
मिथिला कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्व रहा है। यहाँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से पोखर-यज्ञ के लिए पद्धतियों का निर्माण शुरू हुआ। कर्णाट राज काल में तड़ागामृतलता और जलाशयादिवास्तु पद्धति नामक दो महत्वपूर्ण पुस्तक वर्धमान उपाध्याय ने लिखी। पंद्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में जलाशयोत्सर्ग पद्धति लिखी गयी जिस पर बुधकर ने अपनी टीका लिखी। प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए।
पोखर मुख्यतः राजा और जमींदार वर्ग द्वारा खुदवाया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो लागे अपने को सक्षम मानते थे वे लोग अपनी कीर्ति के लिए पोखर खुदवाते थे। स्मारक के रूप में समाज में इसका काफी महत्व था।
इसलिये यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पोखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया। पोखर-यज्ञ में लोक कल्याण व पशु-पक्षी कल्याण हेतु पोखर का उत्सर्ग किया जाता है। यह यज्ञ पोखर खुदवाने के बाद पोखर के एक महार पर पूरे समाज की उपस्थिति में आयोजित की जाती है। इसके बाद ही इस पोखर का जल देवताओं पर चढ़ाया जा सकता है या पूजा-पाठ में उसका व्यवहार किया जा सकता है। यज्ञ के पश्चात् पूरे समाज को उस पोखर के जल और मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छन्द उपयोग का अधिकार हो जाता है।
यहां एक बात की चर्चा आवश्यक है। मिथिला में पोखर-यज्ञ के लिये सिर्फ पद्धति की रचना ही नहीं हुई अपितु अक्सर पोखर खुदवाया भी जाता रहा। बारहवीं शताब्दी में गांग देव द्वारा काफी पोखर खुदवाया गया, जिसमें कुछ आज भी अन्हरा-ठाढ़ी, भौरा, मठिआही और आसी गाँव में मौजूद हैं। हाबीडीह, दरभंगा (शहर), बीरसाइर, वासुदेवपुर, सिमराओन और नेहरा गाँव के काफी पोखर चौदहवीं शताब्दी के पूर्व ही खुदवाये गये थे। ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में सरोवर और पोखर वर्णन है।
चौदहवीं शताब्दी में पोखर का एक और वर्ग ‘सरोवर’ गया, क्योंकि पूर्व परिचित पांच वर्ग (कूप, वापी, पुष्करणी, तड़ाग और ह्रद) में सरोवर नही था। पोखरा सातवां वर्ग हुआ। ज्योतिरीश्वर पोखर को महाह्रद या पोखरा सातवें वर्ग के रूप में दिखता है। वर्णरत्नाकर का पोखर वह पोखर नहीं है, जिसका प्रसंग बाद की लोकोक्तियां निर्देशित करती हैं।
यह लोकोक्ति है, पोखर, रजपोखरि और सब पोखरा; राजा शिवसिंह और सब छोकड़ा। शिव सिंह और ज्योतिरीश्वर के बीच करीब एक सौ वर्ष का अन्तर है। हो सकता है कि वर्णरत्नाकर के सौ वर्ष बाद रजपोखरि खोदे जाने के बाद पोखर के आकार की मान्यता बदल गयी हो और तब उपरोक्त लोकोक्ति का प्रचार हुआ हो। हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि मिथिला के इतिहास में विभिन्न प्रकार के पोखर खुदवाने और उनकी मौजूदगी के काफी प्रसंग उपलब्ध हैं। उदाहरण स्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखा गया आईना-ए-तिरहुत मिथिला के निम्नलिखित प्रसिद्ध पोखरों का विवरण प्रस्तुत करता है।
आईना-ए-तिरहुत के अनुसार मिथिला के प्रसिद्ध पोखरों का विवरण
क्र.सं  गाँव/शहर का नाम परगना पोखरों की संख्या पोखरों का क्षेत्रफल (बीघा में)
1 दरभंगा (शहर) - 8 बहुत बड़ा
2 बिरौल हाटी 1 -
3  बर पिंडारूच 1 200
4 सागरपुर हाटी 1 -
5 रैयाम  भौर 1 60-70
6  कमतौल भरवारा  1  80-85
7 रांटी हाटी 1 50-60
8 संग्राम पचही 1 70-80
9 जरहटिया हाटी 1 - 
10 लहरा परिहारपुर-राघो 1 60-70
11 केओटी पिंडारूच 1 20
12 नेहरा  परिहारपुर-राघो 1 2 मील लम्बा
13 भरवारा भरवारा 1 2 मील लम्बा
14 बेला आलापुर 1 2 मील म्बा
15 हरिपुर
हाटी
1
60-70
16
नेहरा (नील कारखाना के समीप)
परिहारपुर-राघो
1
60-70
17
भिट्ठा
परिहारपुर-राघो
1
100
18
लबानगान
लबानगान
1
40-50
19
अन्तिहर
बारी
2
50-60 (प्रत्येक)
20
ब्रह्मपुर
भरवारा
1
83-84
21
बासोपट्टी
भाला
1
50-60
22
रहिका
जरैल
1
10-15
23
कछुआ
आलापुर
1
60-70
24
शंकरपुर कंसी
भरवारा
1
60-70
25
सिमरी
भरवारा
1
50-60
26
बनौली
रामचावन्द
1
-
27
सिमरी
जरैल
1
25-30
28
तारालाही
फरकपुर
1
70-80
29
दिकहार
नारे-दिगर
1
50-60
30
वैदेहीपुर
लबानगान
1
50-60
31
सिमराम
हाटी
1
70
32
शिवसिंहपुर
सौट
1
70-80
33
चनौर
लबानगान
1
70-80
34
दामोदरपुर
जरैल
1
25-30
35
बिनौल
तिरसठ
1
60-65
36
कठरा
लोआम
1
126
37
बीरसाइर
हाटी
1
25
38
अकौर
-
1
30-40

उपरोक्त सभी पोखरों के अलग-अलग नाम हैं, नाम के साथ दन्तकथा जुड़ी है। इन सभी दन्तकथाओं में विभिन्न कालों के ऐतिहासिक महत्व की सामग्री बिखरी पड़ी है। तथा हरेक पोखर का इतिहास उस गाँव व इलाके के जीवन के इतिहास से जुड़ा है। इस संदर्भ में शोधकार्य प्रारम्भ करना आवश्यक है।
बिहारी लाल फितरत, जिन्होंने गाँव-गाँव घूम-घूम सर्वेक्षण कर आईना-ए-तिरहुत की रचना की, लिखते हैं कि उपर्युक्त सारणी में जितने पोखरों का विवरण दिया गया है, उसके अलावा दरभंगा जिला (उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के दरभंगा जिला) में हजारों की संख्या में पोखर वर्तमान है, इनमें से प्रत्येक का विवरण एक पूर्ण व्यवस्थित दफ्तर द्वारा तैयार किया सकता है। मिथिला क्षेत्र की इस विपुल जल सम्पदा के प्रति हमलोग बिहारी लाल फितरत के बाद प्रायः उदासीन रहे हैं।
पोखर मुख्यतः राजा और जमींदार वर्ग द्वारा खुदवाया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो लागे अपने को सक्षम मानते थे वे लोग अपनी कीर्ति के लिए पोखर खुदवाते थे। स्मारक के रूप में समाज में इसका काफी महत्व था। म.म. शंकर मिश्र के जन्म के समय जिस चमाईन ने अपनी सेवा दी थी उन्हें म. म. अयाची मिश्र ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शंकर मिश्र की पहली कमाई दे दी। इस आमदनी से उस चमाईन ने अपनी कीर्ति के लिये अपने गाँव सरिसब-पाही में एक पोखर खुदवाया, यह जनश्रुति प्रचलित है।
चमनिया-डाबर कहा जाने वाला एक पोखर इस गाँव में आज भी मौजूद है। इससे यह जनश्रुत परम्परा सत्य प्रतीत होती है, लेकिन इससे इतना तो अवश्य प्रमाणित होता है कि लोगों में अपना कीर्ति स्मारक स्थापित करने की भावना प्रचुर रूप में विद्यमान थी और स्मारक के तौर पर पोखर खुदवाना बहुत उपयुक्त समझा जाता था। इससे पुण्य (धार्मिक दृष्टि से) भी होता था तथा खेत की सिंचाई करते समय, मछली मारते समय और घोंघा-सितुआ चुनते समय पुश्त-दर-पुश्त गाँव/इलाके में पोखर खुदवाने वाले का नाम लिया जाता था। पोखर का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग खेतों की सिंचाई के लिये किया जाता था।
ग्रिअर्सन अपनी पुस्तक ‘बिहार पीजैन्ट लाइफ’ में बिहार में प्रचलित तीन प्रकार की सिंचाई की चर्चा करते हैं:
1. पईन और नहर से,
2. कुआं से और
3. पोखर से।
इस तीन तरह की सिंचाई में किस प्रकार का उपयोग बिहार के किस क्षेत्र में होता था उसके बारे में ग्रिअर्सन कोई खास सूचना अपनी पुस्तक में नहीं देते हैं। इस प्रसंग की सूचना विलेज नोट्स में उपलब्ध है। यह विलेज नोट्स बिहार के प्रथम भूसर्वेक्षण, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ और इस शताब्दी के दूसरे दशक तक चला, के दौरान गाँव-गाँव में जाकर सर्वेक्षण पदाधिकारी द्वारा तैयार किया गया है। लेखक द्वारा सिंचाई के संदर्भ में बिहार के उस समय पटना, शाहाबाद, गया, भागलपुर, पूर्णिया, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, चम्पारण और सारण जिलों के करीब पांच हजार गाँवों के विलेज नोट्स का अध्ययन किया गया है।
दरभंगा जिला के अतिरिक्त सभी जिलों के विलेज नोट्स में खेती की जमीन की सिंचाई के लिये कहीं-कहीं ही पोखर की चर्चा मिलती है। लेकिन दरभंगा जिला का जितना विलेज नोट्स उपलब्ध हुआ उसके प्रायः 70 प्रतिशत में पोखर का उपयोग अंशतः सिंचाई के लिए किये जाने की चर्चा है। इसके अलावा जिन-जिन गाँवों में पोखरों की संख्या अधिक है, उसका वर्णन है जैसे, ननौर (सं. 246), परगना-पचही, थाना-मधुबनी में करीब 70 पोखर थे, रैयाम (सं. 169), परगना-भौर, थाना मधुबनी में 50-60 पोखर, हरडी (सं. 282), परगना-भौर, थाना-मधुबनी में 5-6 पोखर, नबनगर (सं. 287), परगना - जबदी, थाना-मधुबनी में 9 पोखर, मधेपुर (सं. 259), परगना-पचही,थाना-फुलपरास में 25 पोखर, लखनौर (सं. 247), परगना-पचही, थाना-फुलपरास में 20 पोखर, टटुआर (सं. 192), परगना-लोआम, थाना - बहेरा में 23 पोखर, हावी-मौआर (सं. 20), परगना-हावी, थाना - बहेरा में 20 पोखर इत्यादि। लेकिन विलेज नोट्स में गाँव की खेती की कितनी जमीन की सिंचाई होती थी, उसके बारे में कोई आंकड़ा नहीं दिया गया है। वैसे इतना निष्कर्ष तो लगाया जा सकता है कि जिस गाँव में पोखरों की संख्या और उसका रकबा जितना अधिक है, उसका वहां पोखरों से उतनी ही अधिक सिंचाई होती होगी।
जेएच केर ने इस शताब्दी के प्रारम्भ में दरभंगा जिला की वैसी जमीन का आंकड़ा प्रस्तुत किया है जिसकी सिंचाई पोखर से होती थी। इस जिला में दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर तीन सबडिविजन थे। मधुबनी में चार थाना था: बेनीपट्टी, खजौली, फुलपरास और मधुबनी, दरभंगा सबडिविजन में तीन थाना था: दरभंगा, बहेड़ा और रोसड़ा। समस्तीपुर में भी तीन थाना था: वारिसनगर, समस्तीपुर और दलसिंहसराय। हर सबडिविजन में पोखरों से जितने खेतों की सिंचाई होती थी उसका विवरण निम्नलिखित सारणी में दिया जा रहा है।
क्र.सं.  सबडिविजन
कुल खेती की जमीन का सिंचित हिस्सा (प्रतिशत में)
कुल सिंचित जमीन में पोखर सिंचित हिस्सा (प्रतिशत में)
1  बेनीपट्टी 31.83    55.14
2 खजौली 11.46      42.05
3
फुलपरास
11.73
30.04
4.
मधुबनी
5.43
58.71
कुल
14.35
48.85
5.
दरभंगा
0.50
13.65
6.
बहेरा
0.74
53.62
7.
रोसड़ा
0.12
10.48
कुल
0.48
36.04
8.
वारिस नगर
1.37
11.17
9.
समस्तीपुर
2.49
8.80
10.
दलसिंहसराय
2.32
12.08
कुल
2.14
10.39
जेएच केर द्वारा दिये गये आंकड़े से यह स्पष्ट है कि बेनीपट्टी, मधुबनी और बहेड़ा थाना में पोखर सिंचाई का मुख्य स्रोत था। केर के अनुसार, मधुबनी सबडिविजन में 45,000 एकड़ जमीन की सिंचाई सम्भव थी। मधुबनी सबडिविजन का क्षेत्र अब मधुबनी जिला बना गया है, जहां करीब-करीब 20,000 पोखर मौजूद हैं। लेकिन यह कहना अब कठिन है कि कितना पोखर कितना उपयोगी रह गया है।
स्वतंत्रता के पूर्व मछली, मखाना जैसी पोखर की वस्तुएं किसी बाजार में खरीद-बिक्री के लिए प्रायः नहीं भेजी जाती थीं। अतएव पोखर से जो कुछ उपलब्ध होता था, उसका उपभोग गाँव अथवा इलाका में बिना खरीद-बिक्री के किया जाता था। प्रथम भूमि-सर्वेक्षण में गाँव के खतियान में पोखर की हैसियत गैरमजरूआ आम या गैरमजरूआ खास के रूप में दर्ज थी। इस प्रकार पोखर ‘आम’ अथवा ‘खास’ हो गया।
ग्रामीणों को पहले जिस प्रकार मछली उपलब्ध होती थी, अब सम्भव नहीं है। उन लोगों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह सब समाप्त हो गया। खास पोखरों की भी यही दुर्गति हुई। इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब कौन पोखर का महार तोड़ता है, कौन पोखर में आने वाला पानी बंद करता है, किस पोखर का पानी दुर्गंध करता है, किस में केचुली भर गई है, इन सब से किसी को कोई मतलब नहीं है।पोखर का ऐसा परिचय पहले नहीं था। आम पोखरों की देख-रेख जमींदार लोगों के हाथ में थी तथा खास पोखरों की देख-रेख जिन लोगों की मिल्कियत होती थी, वे लोग किया करते थे। लेकिन समाज दोनों तरह के पोखरों का उपयोग करता था, उसके पानी से खेत की सिंचाई की जाती थी। समाज उसकी मछली, मखाना, घोंघा-सितुआ इत्यादि का भी उपयोग करता था। बाजार उपलब्ध नहीं होने के कारण और धार्मिक तौर पर उत्सर्ग हो जाने के कारण, पोखर सम्पूर्ण समाज के उपयोग के लिए रहता था। कारण प्रायः सम्पूर्ण समाज अपने गाँव के सभी पोखरों को अपना समझता था, उसके प्रति एक खास ममत्व की भावना रहती थी, उसकी सुरक्षा के लिए सभी साकांक्ष रहते थे- समाज और पोखर के बीच एक सशक्त सम्बन्ध स्थापित था।
इस सम्बन्ध को सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाज और ज्यादा मजबूत करता था। जैसे मिथिला क्षेत्र में प्रचलित जूड़शीतल पर्व। यह पर्व बैसाख (अप्रैल) माह में मनाया जाता है। यह पर्व बिहार के दूसरे इलाकों में सतुआइन और वैशाखी के नाम से मनाया जाता है। मिथिला में इसके अनुष्ठान की विधि भिन्न रही है। यहां गाँव-गाँव में लोग कीचड़-कादो से खेलते हैं, लोग पोखर में जमा हो कर एक-दूसरे पर पानी, कीचड़ और कादो फेंकते हैं। इस प्रकार कीचड़-कादो खेलने से पोखर का गाद हट जाता है तथा पोखर में भर गये घास, केचुली, सेवार इत्यादि साफ हो जाते हैं। लगता है, पोखर के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए इस विधि से यह पर्व मनाने की प्रथा मिथिला में चली होगी।
अन्य विधि-व्यवहार में भी पोखर का स्थान महत्वपूर्ण है। जैसे, कुमरम दिन (लड़की के विवाह का पूर्व दिन) में लड़की को पोखर में स्नान करवाने के लिए ले जाने की प्रथा है। स्नान करने के बाद पोखर के जल में जलेन्द्रि की पूजा की जाती है। इसके बाद जल से बाहर निकल कर पोखर के महार पर पूजा करायी जाती है। इसी प्रकार विवाह के बाद मसनही में वधू को पोखर में स्नान-पूजा करायी जाती है। श्राद्ध कार्य का बहुत सारा कर्म तो पोखर के महार पर ही सम्पन्न किया जाता है। इसके अतिरिक्त पोखर की चर्चा लोकगीत, सामागीत और लोक कथाओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलती है।
उपर्युक्त सभी बातें समाज और पोखरों के सम्बन्ध की दृढ़ता का परिचायक हैं। गाँव की जो शक्ति सामाजिक सत्यता के रूप में थी उसका एक पक्ष (मिथिला में) पोखर से प्रतिबिम्बित होता था। गाँव के समाज और गाँव के पोखर का ऐसा अद्भुत सम्बन्ध अब बिखर रहा है।
जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के पश्चात् बिहार सरकार द्वारा भू-सर्वेक्षण प्रारम्भ कराया गया। इस सर्वेक्षण में पूर्व का गैरमजरूआ आम पोखर बिहार सरकार के पोखर के रूप में दर्ज किया गया। साथ ही मछली और मखाना का बाजार भी उपलब्ध हो गया। सरकार द्वारा सरकारी पोखरों को मछली और मखाना के लिए खास अवधि हेतु लीज पर दिया जाने लगा। सरकार को इससे आमदनी शुरू हो गयी। लीज लेने वाले जहां तक हो सके अपना लाभ सोचने लगे, जिससे गाँव के लिये पोखर के पानी का उपयोग बंद जैसा हो गया। सिंचाई के लिए पानी लेने पर रोक-थाम होने लगी, क्योंकि पोखर का पानी कम होने पर मछलियां मर जाती थीं। मछली मर जाने से लीज लेने वाले को घाटा होता है।
इसलिए वे घाटा क्यों सहें! ग्रामीणों को पहले जिस प्रकार मछली उपलब्ध होती थी, अब सम्भव नहीं है। उन लोगों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह सब समाप्त हो गया। खास पोखरों की भी यही दुर्गति हुई। इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब कौन पोखर का महार तोड़ता है, कौन पोखर में आने वाला पानी बंद करता है, किस पोखर का पानी दुर्गंध करता है, किस में केचुली भर गई है, इन सब से किसी को कोई मतलब नहीं है।
लीज लेने वालों को तो पोखर से यथासाध्य लाभ हासिल करना है। उन लोगों को कोई मतलब नहीं है कि गाँव का पोखर किस प्रकार व्यवस्थित रहेगा। इस तरह पोखर, जो समाज की सामूहिक सम्पत्ति था, सामूहिक उपभोग-सामूहिक जीवन का एक सशक्त स्रोत था, अधोगति के अंधकार में समाप्त हो रहा है। साथ ही जो समाज इसके (पोखर) साथ इतने दिनों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहा है, उससे अब दूरी बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि सरकार और समाज दोनों इस समस्या का निदान खोजें - समाज की यह सम्पदा समाज को पुनः मिले, साथ ही यह सम्पदा स्थायी रूप से समाज द्वारा संरक्षित हो, समाज के लिए उपयोगी हो।
मैथिली से अनुवाद: रणजीव
Via-india water portal

Tuesday, September 19, 2017

मिथिला मे तंत्र आओर धार्मिक चित्रकला क अवधारना


आशीष झा

हिंदू सबहक शाक्‍त संप्रदाय मे ईश्‍वर तक पहुंचबाक या ओकरा प्राप्‍त करबा
लेल दूटा मार्ग बताउल गेल अछि। तंत्र ओहि मार्ग मे सबसे कनि आ व्‍यापक
मार्ग अछि। ‘पिंड लामत’ नामक ग्रंथ क अनुसार  तंत्र ओकरा कहल जाइत अछि
जाहि स चारू कातक वस्‍तु क ज्ञान हो। ओतहि आधुनिक काल मे तंत्रशास्‍त्र आ
ओकर ज्ञानक पुनरउद्धार करनिहार महान विदेशी विद्वान जॉन उडरफ क मतानुसार
तंत्र यर्थात: अपन प्रकृति स बनल एकटा विश्‍वकोषात्‍मक विज्ञान अछि जे
व्‍यावहारिक हेबाक संग संग मार्ग प्रदर्शित करनिहार सेहो अछि। एहि प्रकार
स कहल जा सकैत अछि जे तंत्र विधा एकटा नितांत स्‍वतंत्र आ रहस्‍यात्‍मक
दृष्टिकोण अछि। स्‍वंय तांत्रिक ग्रंथ तक एकर सर्वमानय परिभषा नहि द सकल
अछि। एकर पाछू कारण रहल जे तांत्रिक शब्‍दावली आ तांत्रिक क्रियाकलाप
एतबा गूढ़, नितांत प्रतीकात्‍मक आ सूत्रात्‍मक अछि जे एकर सर्वमानय
परिभाषा देब संभव नहि रहल।
मिथिला ओहि किछु क्षेत्र विशेष मे अबैत अछि जाहि ठाम तंत्र क जडि काफी
गहीर अछि। एहि ठाम शाक्‍त संप्रदाय क वाम मार्ग आ तंत्र क प्रयोग एक संग
भेटैत अछि। उपासना आ खोज क नियम जतय तंत्रक पाछू चलैत देखाइत अछि ओतहि
तंत्र क पंचाकार – मदिरा, मांस, मुद्रा, मीन आ मैथून कए शाब्‍दीक अर्थ मे
ग्रहण करब एहि ठाम सर्वथा अनुचित मानल गेल अछि। एहि प्रकार एहि ठामक
संस्‍कृति मे शिव स विशेष महत्‍व पार्वती कए भेटल अछि। अत: एहि विचारधारा
एहि माननिहार लेल शक्ति अर्थात स्‍त्री सर्वशक्तिमान छथि आ ओकरे पूजा
तंत्र मार्ग क एक मात्र ध्‍येय होइत अछि।
तांत्रिक विचारधारा या मार्ग मे सबस प्रमुख आ अदभुत वस्‍तु यंत्र होइत
अछि। जाहि प्रकार मंत्र ध्‍वनी प्रधान अभिव्‍यक्ति अछि ओहिना यंत्र आकार
प्रधान अभिव्‍यक्ति होइत अछि। जेना विद्वान समय समय पर मंत्र क रचना करैत
रहलाह अछि तहिना समय समय पर यंत्र क रचना होइत रहल अछि। चूंकि तांत्रिक
साधना मे यंत्र निर्माण आ पूजा अनिवार्य रूप स जुडल अछि ताहि लेल मिथिला
मे पैघ संख्‍या मे यंत्रक निर्माण कैल जाइत रहल अछि। वस्‍तुत: यंत्रक
निर्माण स तांत्रिक सिद्धांत क अभिव्‍यक्ति प्रकट होइत अछि। अत: तांत्रिक
चित्रकला क आकार प्रधान प्रतीक क अध्‍ययन प्रमुख रूप से मिथिलाक यंत्र
रचना स जुडल अध्‍ययन अछि।
अन्‍य स्‍थानक भांति मिथिला मे सेहो तांत्रिक चित्रकला मूल रूप स 12टा
ढार रेखा, बिंदु, रेखावृत, त्रिकोण, चतुष्‍कोण, आदि रेखापरक आकार मे बनल
भेटैत अछि। संग हि संग एहि ठाम देशक प्रत्‍येक रेखात्‍मक आकार क प्रतीक आ
यंत्र निर्माण मे विनियोग क एकटा सुनिश्चित पद्धति आ सिद्धांतिक मान्‍यता
सेहो देखबा लेल भेटैत अछि।
मिथिला मे तांत्रिक चित्रकला क उपलब्‍ध नमूनाक अध्‍ययन स इ स्‍पष्‍ट भ
जाइत अछि जे एहि ठाम रेखागणितीय या ज्‍यमीतीय आकर आ प्रतीक क सबस बेसी
महत्‍व अछि। तंत्र स भिन्‍न धार्मिक आ आध्‍यात्मिक कला मे एहन प्रतीक क
ऐना स्‍वतंत्र आ विशेष महत्‍व प्राय: नहि देखबा लेल भेटैत अछि। मिथिला क
तांत्रिक चित्रकला रचना मे प्रयुक्‍त प्रमुख प्रतीक क वर्गीकरण एहि रूप
मे कैल जा सकैत अछि। 1, रेखागणितीय आकार, 2, बीजाक्षर,3 बीज संख्‍या या
अंक, 4 विशेष देव आकार स्‍वरूप, 5 मानव आकार, 6 साधन परक भावात्‍मक बा
कृत्‍यात्‍मक प्रतीक, 7 प्राकृतिक शक्ति आ प्राकृतिक सत्‍ता, 8 विभिन्‍न
अचेतन वस्‍तु।
रेखागणितीय प्रतीक मे सबस पहिल आ प्रमुख अछि ‘बिंदु’, जे सर्वोच्‍चय
सत्‍ता क सुक्ष्‍तम कलात्‍मक अभिव्‍यक्ति क द्योतक अछि। मिथिलाक तांत्रिक
चित्रकला में एकरा सृष्टि निर्माण प्रक्रिया क पहिल आकारात्‍मक रूप मानल
गेल अछि। निश्चित रूप स इ सब प्रकारक कलात्‍मक अभिव्‍यक्ति क सेहो पहिल
आकार अछि जे आकारहीनता स आकार दिस अभिव्‍यक्ति कए जेबाक पहिल चरण अछि।
यंत्र क निर्माण मे बिंदु क मिलन स रेखा बनैत अछि आ एहिना रेखात्‍मक
आकारक विकास होइत जाइत अछि। स्‍वरूपात्‍मक जगत क विकासक प्राथमिक शक्ति क
अंकन तंत्र कला मे रेखा क माध्‍यम स कैल जाइत अछि।
मिथिलाक तांत्रिक चित्रकला में रेखाक योग स त्रिकोण बनैत अछि, जे यंत्र
निर्माण मे अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखैत अछि। तंत्र कला मे त्रिकोण
कए योनि अर्थात मातृशक्ति क प्रतीक मानल गेल अछि। एकर उर्ध्‍वमुखी रूप कए
पुरुष तत्‍व क प्रतीक क रूप मे प्रस्‍तुत कैल जाइत अछि। एहिना एहि कला मे
चतुष्‍टकोण सृष्टि प्रक्रिया क व्‍यवस्‍था क द्योतक अछि जे अन्‍य सबटा
प्रतीक लेल आवरण या प्रतिष्‍ठा क काज करैत अछि। यंत्र रचना मे बिंदु बा
केंद्र क विकासशील छंदात्‍मक स्‍वरूप कए बतेबा लेल वृत क मंडल क प्रतीक
एहि ठाम प्रमुखता स देखबा लेल भेटैत अछि।
एहि प्रकार स कहल जा सकैत अछि जे तंत्र में यंत्र रचना एकदम निजी विशेषता
अछि। स्‍वयं देवताक प्रतीमा सेहो यंत्र क एकटा रूप अछि। एहि प्रकार
उपलब्‍ध यंत्र क मिथिला मे असंख्‍य उदाहरण भेटैत अछि। मुदा प्रमुख यंत्र
मे सबस बेसी लोकप्रिय यंत्र श्रीचक्र अछि। इ पुरुष आ स्‍त्री  अर्थात शिव
आ शक्ति क संयुक्‍त प्रतिकात्‍मक स्‍वरूप प्रकट करैत अछि। एहि मे नौ टा
चक्र आ नौ टा त्रिकोण एकत्र भ कए एकटा विशिष्‍ट यंत्र क रूवरूप बनबैत
अछि।
चूंकि तंत्र साधना मे स्‍त्री सहयोगी एकटा अनिवार्य शर्त अछि, अत: मानव
अवयव क आकर पर लेल गेल पुरुष आ स्‍त्री क प्रजननात्‍मक चिन्‍ह लिंग आ
योनि कए एहि कला मे विभिन्‍न रेखात्‍मक रूवरूप मे अंकन कैल जाइत अछि। एहि
मे बिंदु, त्रिकोण, वृत, पद्य, चतुरस्‍त, वास्‍तुगत विन्‍यास आदि क अदभुत
विनियोग देखबा लेल भेटैत अछि। मिथिला मे निर्मित अन्‍य यंत्र मे सेहो
मुख्‍यत: एहि प्रतीक क आवश्‍यकतानुसार प्रयोग भेटैत अछि। मुदा सिद्धिपरक
यंत्र मे पशुआकार, पक्षीआकर, बीजाक्षर, पदचिन्‍ह, हस्‍त चिन्‍ह, भवन,
पर्यावरण पर आधारित चित्र आ प्रतीक देखबा लेल भेटैत अछि।
मिथिलाक तांत्रिक चित्रकला में देवी क कईटा रूप क उपासना देखबा लेल भेटैत
अछि जाहि मे हुनकर भूमिगत स्‍वरूप सेहो शामिल अछि। एहन दस प्रमुख देवी
स्‍वरूप जेकरा दस महाविद्या कहल गेल अछि ओहि मे सबस प्रमुख तांत्रिक
स्‍वरूप छिन्‍नमस्तिका आ शव-शिवा काली क अछि। एहि अदभुत तांत्रिक स्‍वरूप
क तहत शव रूप शिव पर देवी संभोग मुद्रा मे आसीन अंकित कैल गेल छथि। एहिना
संहार आ विनाश  क विचित्र स्‍वीकृत प्रतीक मे नर मुंड क विशेष स्‍थान
मानल गेल अछि। छिन्‍नमस्तिका स्‍वरूप मे देवी अपने अपन मुड़ी काटि हाथ मे
उठेने देखाउल गेल छथि। एकटा विशेष स्‍वरूप क तहत देवी सात टा नर मुंड क
आसन पर बैसल देखा रहल छथि।
वाममार्गी तंत्र साधक क संख्‍या मिथिला मे काफी रहल अछि आ एहि ठामक विशेष
मान्‍यताक तहत भावनात्‍मक आ कृत्‍यात्‍मक प्रतीक क सेहो यंत्र मे खबू
प्रयोग देखबा लेल भेटैत अछि। इ एहि ठामक विशेष शैली कहल जा सकैत अछि। एहि
शैली क तहत बनाउल गेल यंत्र मे पंचभूत आ पंच तत्‍व प्रमुख अछि। उदाहरण त
रूप मे कृष्‍ण आ गोपी क चीरलीला कए लेल जा सकैत अछि। एहि यंत्र मे गोपी
कए पंच तत्‍व क रूप मे प्रतीकात्‍मक रूवरूप मे लेल गेल अछि। एहिना पांच
महाभूत कए देखेबा लेल हाथ क पांच टा जोड़ा क चित्र बनाउल गेल अछि।
प्राकृति शक्ति क प्रतीक मे सर्वोच्‍च रूप स सूर्य आ चंद्रमा क अंकन कैल
जाइत अछि। तहिना बांस आ पुरैन गाछ आ लत्‍ती क सवोच्‍चता पौने अछि।
मिथिलाक तांत्रिक चित्रकला क एकटा आधारभूत विशेषता एकर रंग चयन क
प्रतीकात्‍मकता या प्रतीकवाद अछि। इ विभिन्‍न आर्दश आ सिद्धांत बहुत हद
तक वैज्ञानिक मान्‍यता पर सेहो आधारित कहल जा सकैत अछि। रंग क
प्रतीकात्‍मकता जाहि रूप में मिथिला मे निर्मित यंत्र मे भेटैत अछि ओ
आजुक समय मे एकटा शोध क रोचक विषय भ सकैत अछि। एहि कला क रेखात्‍मक
प्रतीक मे क्रमश: स्‍वेत आ रक्‍त (लाल) वर्ण क दूटा बिंदू आ रेखा क
प्रयोग भेटैत अछि। जखनकि अन्‍य मूर्तिगत तांत्रिक चित्र मे स्‍वेत आ
रक्‍त क सं संग संग नील, पीयर वर्णक सेहो प्रयोग देखार होइत अछि। एहि मे
करिया वर्ण क विशेष महत्‍व बुझाउल गेल अछि।
इ सर्वमान्‍य अछि जे समस्‍त तांत्रिक विधा सदेव एकटा गूढ शास्‍त्र आ
साधना पद्धति रहल अछि। अत:  एकर संबंध मे सामान्‍य व्‍यक्ति कए जानकारी
भेटब काफी कठिन रहल अछि। एहि शास्‍त्रक संबंध मे अल्‍प ज्ञानक कारण स
अनेक विद्वान अपन शोध आ रचना मे एकर जमि कए आलोचना केलथि अछि। तंत्र विधा
क निंदा करैत किछु विद्वान त एकरा कामशास्‍त्र आ काला जादू तक लिख चुकल
छथि। मुदा तंत्र पर लिखल गेल सबस पुरान ग्रंथ ‘आगम’ क अनुसार तंत्र अपन
माध्‍यम स परंपरा क एकटा विशेष विचारधारा, तत्‍संबंधी शास्‍त्र, दार्शनिक
सिद्धांत आ जीवनक ओहि आचार –वयवस्‍था क बोध होइत अछि जेकर माध्‍यम स इ
संसार सुचारू रूप स चलि सकैत अछि। अत: तंत्र केवल शाक्‍त नहि बल्कि शैव,
वैष्‍णव, बौद्ध व जैन संप्रदाय मे सेहो कम या बेसी मात्रा मे देखबा लेल
भेट जाइत अछि।
इ मानबा मे कोनो हर्ज नहि जे मिथिला क यंत्र निर्माण मे लागल तांत्रिक
चित्रकलाक कलाकार मौलिक रूप स एकटा साधक रहला अछि। एकर पुष्टि एहि तथ्‍य
स सेहो होइत अछि जे तांत्रिक चित्रकला क नाम पर बनाउल गेल अधिकतर चित्र आ
वस्‍तु तांत्रिक साधना क निजी रहस्‍यात्‍मक साधना क उपयोग क वस्‍तु रहल
अछि। एकर निर्माण प्राय: साधक स्‍वंय या फेर एकर दीक्षित अन्‍य व्‍यक्ति
करैत रहला अछि। एहि कारण स तांत्रिक विषयक ज्ञान क अभाव मे सामान्‍य
कलाकार तांत्रिक चित्रकला क नाम पर निष्‍प्रभावी यंत्र क निर्माण करैत
रहलाह। जेकर व्‍याख्‍या सेहो अपन अपन तर्क स होइत रहल। आजुक स्थिति में
यंत्र क अर्थक एतबा अधिकता भ चुकल अछि जे ओकर सार्थकता पर प्रश्‍नचिन्‍ह
लगा देलक अछि।
संदर्भ :-
अजीत मुखर्जी – तंत्र आर्ट
दुर्गा प्रसाद – काली विकास तंत्र
आर्थर खलल – तांत्रिक ट्रेंडस
जनार्दन मिश्र- भारतीय प्रतीक विधा गोपीनाथ – योगिनी
देवदत्‍त शास्‍त्री – तंत्र सिद्धांत और उपासना 
लक्ष्‍मीनाथ झा – मिथिला की सांस्‍कृतिक लोकचित्र कला

Wednesday, April 20, 2016

‘पुत्र मोह’ में नीतीश कुमार के आगे झुके लालू प्रसाद !

  • विजय कुमार श्रीवास्‍तव 


देश के धाकड़ समाजवादी नेताओं में से एक राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने बिहार के सीएम और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार को 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में समर्थन देने का एलान कर दिया है। अभी कुछ ही महीनो पहले लालू ने कहा था कि नीतीश कुमार बिहार की राजनीति करेंगे जबकि वे केंद्र के मसले देखेंगे। लेकिन लालू अब अपने पूर्व के एलान से पटलटने पर मज़बूर हो गए। राजनीतिक गलियारों में लालू के ताज़ा एलान को कई दृष्टिकोणों से देखा जा रहा है। जानकारों का कहना है कि बड़े भाई लालू ने अपने बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप के राजनीतिक करिअर को देखते हुए छोटे भाई नीतीश के आगे घुटने टेक दिए हैं। हालांकि राजनीतिक पंडितों ने इस एलान के कई अन्य मायने लगाए हैं। इसमें नीतीश के तीर से भाजपा पर निशाना साधना और छोटे भाई की राजनीतिक नैया पर सवार होकर पटना से दिल्ली तक का सफर तय करने की मंशा के अलावा कई अन्य मंसूबे शामिल हैं।
जो भी व्यक्ति लालू प्रसाद की राजनीति को पैनी नज़र से देखता आया है उसे मालूम होगा कि लालू प्रसाद देश में कई मौक़ों पर किंग मेकर की भूमिका में रहे हैं। वे भले ही देश का पीएम नहीं बन पाए हों लेकिन इंद्र कुमार गुजराल, एचडी देवगौड़ा से लेकर चंद्रशेखर और वीपी सिंह की पीएम के रूप में ताज़पोशी में कमोवेश लालू की भूमिका ज़रूर रही थी। राजनीतिक विश्लेषकों को ये भी पता है कि कैसे लालू ने अपने ही समाजवादी कुनबे के तत्कालीन बड़े नेताओं मुलायम सिंह यादव और रामविलास पासवान के पीएम बनने की राह में रोड़ा अटका दिया था। ऐसे अवसरवादी लालू प्रसाद एक अन्य समाजवादी नेता नीतीश कुमार को अगर पीएम उम्मीदवार के रूप में तीन साल पहले ही प्रमोट कर रहे हैं तो इसके कई मायने हैं।
हाल ही में जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने के बाद बिहार के सीएम नीतीश कुमार के सितारे बुलंदी पर हैं। राष्ट्रीय राजनीति की पिच पर पहला बड़ा स्ट्रोक मारते हुए नीतीश ने देश को संघ मुक्त बनाने के अभियान का एलान कर दिया। नीतीश के इस अभियान का देश मे ग़ैर भाजपा दलों का व्यापक समर्थन मिल रहा है। लालू प्रसाद नीतीश की बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने की कसर में लग गए हैं। वे जानते हैं कि देश में भाजपा का प्रभाव कम करना अब उनके बूते में नहीं रहा। इसलिए वे नीतीश को आगे कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि 2019 में नीतीश कुमार केंद्रीय सत्ता में आए तो बड़े भाई के रूप में उन्हें भी सत्ता में भागीदारी मिलेगी। दूसरा कारण ये भी है कि लालू को ये लगता है कि नीतीश जैस-जैसे केंद्र के नज़दीक जाएंगे वैसे वैसे बिहार की सत्ता उनके बेटों के ज्यादा नज़दीक आएगी। लालू को ये भी उम्मीद है कि अगर सबकुछ ठीक ठाक रहा तो वर्ष 2019 के पहले ही बिहार की सत्ता उनके बटे और बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को मिल सकती है। उसके बाद अगले साल यानि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार में जीतना आसान हो जाएगा।
बिहार की राजनीति को क़रीब से जानने वाले ये भी जानते हैं कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का गठबंधन दो अवसरवादियों का मज़बूरी में हुआ गठजोड़ है। नीतीश कुमार अवसर मिलने पर भाजपा के सहयोग से भी केंद्रीय सत्ता पाने में नहीं हिचकेंगे। वहीं लालू प्रसाद अपने बेटों के माध्यम से बिहार की सत्ता में काबिज़ रहने के मंसूबों पर पानी फिरता देख नीतीश की राह में रोड़े अटकाने से भी नहीं हिचकेंगे। अब समय ही ये बता पाएगा कि नीतीश और लालू के मंसूबे पूरे हो पाते हैं या नहीं।

लेखक ईटीवी बिहार में संवाददाता हैं। 

राहुल गांधी के लिए नीतीश कुमार को ना !

  • विजय कुमार श्रीवास्‍तव 

वर्ष 2019 में देश का पीएम बनने का मंसूबा पाले बैठे बिहार के सीएम और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार के लिए राष्ट्रीय राजनीति में पांव जमाना उतना आसान नहीं है। नीतीश संघ और भाजपा मुक्त भारत के नारे के बूते गैर भाजपा दलों को एक मंच पर ‘अपने समर्थन’ में लाना चाहते हैं। लेकिन उनके मंसूबे पर राष्ट्रीय दल कांग्रेस ने पानी फेर दिया है। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ शकील अहमद ने नीतीश के अभियान की तारीफ़ तो की लेकिन इशारों-इशारों में ये बता दिया कि राहुल गांधी पर एक और दांव खेलने का निर्णय लेने जा रही उनकी पार्टी नीतीश कुमार को पीएम के रूप में नहीं देखना चाहती है। कांग्रेस के इस रूख की वज़ह से नीतीश के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई हैं।
राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस का समय समय पर उत्थान और पतन इस देश में कोई नई बात नहीं है। इसी का एक नज़ारा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के रूप में भी दिखा जब केंद्र में कांग्रेस को चारों खाने चित्त करते हुए भाजपा ने उससे शासन छीन लिया। कांग्रेस के इस बार के पतन ने ही क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर उसे राजनीति करने पर मज़बूर कर दिया। बिहार में नीतीश और लालू के साथ गठबंधन करने को मज़बूर हुई कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में सिर्फ ताक़त ही नहीं मिली बल्कि वर्षों बाद सूबे की सत्ता में भागेदारी भी मिली। इससे कांग्रेस फिर से उत्साह से भर गई। उसे लगता है कि दिनोदिन गिरती भाजपा की साख का सीधा फ़ायदा उसे वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मिल सकता है। इसलिए वो अभी से सचेत है।
उधर, बिहार में बड़ी चुनावी जीत से उत्साहित नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस के बूते राष्ट्रीय राजनीति में पांव जमाकर वर्ष 2019 में पीएम बनने का ख्वाब देख रहे हैं। लालू प्रसाद ने कई कारणों से नीतीश के पीएम उम्मीदवार बनने पर अपना समर्थन देने का एलान कर दिया। लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं करना चाहती है। इसके कई कारण हैं। सबसे पहला और बड़ा कारण ये है कि कांग्रेस को नीतीश कुमार की अवसरवादिता खटकती है। उसे लगता है कि नीतीश कुमार केंद्र की सत्ता तक पहुंचने के लिए आज भले ही कांग्रेस का साथ ले लें लेकिन अगर परिस्थितियां जटिल होती हैं तो वे भाजपा या कांग्रेस विरोधी अन्य दलों के साथ मिलकर भी सत्ता के शीर्ष पर जाने में संकोच नहीं करेंगे। इसलिए कांग्रेस बड़ी सावधानी के साथ कदम बढ़ा रही है। उसे बिहार में न सिर्फ सत्ता में बने रहना है बल्कि इसी बहाने इस राज्य में अपना खोया हुआ जनाधार फिर से पाना है। कांग्रेस ये भी जानती है कि दरअसल राजद और जदयू का वोट बैंक ही उसका पुराना जनाधार है। अगर राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश कुमार के साथ समझौता किया गया तो उसे बहुत फ़ायदा नहीं मिलेगा। डॉ शकील अहमद ने ये साफ़ कर दिया है कि नीतीश कुमार की पार्टी या महागठबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर बहुत जनाधार नहीं है।
कांग्रेस को ये भी लगता है कि भाजपा की नीतियों की वज़ह से केंद्र में उसकी सरकार 2019 के बाद वापस नहीं आएगी। ऐसे में चाहे नीतीश का साथ लें या न लें कांग्रेस फ़ायदे में ही रहेगी। हालांकि कांग्रेस में अभी इस बात को लेकर एक राय बनाई जा रही है कि राहुल गांधी को पीएम उम्मीदवार बनाया जाए या नहीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस का नीतीश के साथ गठबंधन होगा या नहीं ये भी अभी भविष्य के गर्भ में है। इसलिए कांग्रेस अभी हो रहे या आने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी फूंक फूंक कर कदम रख रही है। वो ये संदेश नहीं देना चाहती है कि उसने अभी से नीतीश कुमार को पीएम उम्मीदवार मान लिया है। हालांकि कांग्रेस और भाजपा दोनो इस दांव में माहिर हैं कि एक दूसरे को पटखनी देने के लिए नीतीश कुमार को समर्थन दे दिया जाए। आगे राजनीति का ऊंट नीतीश, कांग्रेस और भाजपा के लिए किस करवट बैठेगा ये तो समय ही बताएगा लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले समय में भी नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में बने रहेंगे।

- लेखक ईटीवी बिहार में संवाददाता हैं।

Wednesday, December 24, 2014

लिखने से ज्‍यादा मिटाया गया बनारस हिंदू वि‍श्व‍वि‍द्यालय का इतिहास

सुनील कुमार झा

जितने समृद्ध इतिहास के लिए भारत अपने आप में जाना जाता है उससे कहीं ज्यादा इस बात के लिए जाना जाता है कि यहाँ के इतिहास को हमेशा तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता रहा है । ऐसा ही कुछ हुआ है बनारस हिंदू वि‍श्व‍वि‍द्यालय के इतिहास के साथ भी । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के संबंध में जो मान्य इतिहास है उसमें इस बात की कहीं चर्चा नहीं है कि इसकी स्थापना कैसे हुई और उसके लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े । बनारस हिन्दू वि‍श्व‍वि‍द्यालय की गलियों से लेकर संसद के सैंट्रल हॉल तक में लगी मालवीय जी की मूर्ति बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में दिख जाएगी लेकिन इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता बिहार के सपूत दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह का जिक्र तक नहीं मिलेगा जिनके बिना इस हिन्दू वि‍श्व‍वि‍द्यालय की कल्पना तक नहीं की जा सकती है । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की इतिहास पर लिखी गई एकमात्र किताब जो स्थापना के कई वर्षों बाद 1936 में छपी थी और इसे संपादित किया था बनारस हिन्दू विश्वविद्याल के तत्कालीन कोर्ट एंड कॉउसिल (सीनेट) के सदस्य वी सुन्दरम् ने । सुन्दरम की इस किताब को पढ़कर यही कहा जा सकता है कि उन्होंने जितना बीएचयू का इतिहास लिखा है उससे कहीं ज्यादा इस किताब में उन्होंने बीएचयू के इतिहास को छुपाया या मिटाया है । यह बात साबित होती है बीएचयू से संबंधि‍त दस्तावेज से । बीएचयू के दस्तावेजों की खोज करने वाले तेजकर झा के अनुसार बीएचयू की स्थापना के लिए चलाये गये आंदोलन का नेतृत्व पंडित मालवीय ने नहीं बल्कि‍ दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह के हाथों में था । जिसका जिक्र बीएचयू के वर्तमान लिखि‍त इतिहास में कहीं नहीं मिलता है । बीएचयू के वर्तमान लिखि‍त इतिहास के संबंध में श्री झा बताते हैं कि वी सुन्दरम् उस समय बनारस हिन्दू वि‍श्व‍वि‍द्यालय के कोर्ट एंड कॉउसिल के सदस्य थे और उस समय के कुलपति पंडित मदन मोहन मालविय जी के अनुरोध पर जो चाहते थे कि बनारस हिन्दू विश्चविद्यालय का एक ‍अधि‍कारीक इतिहास लिखा जाना चाहिये के कारण इस किताब को संपादित करने का जिम्मा लिया । और अंतत: यह किताब ‘’बनारस हिन्दू युनिवर्सि‍टी 1905-1935’’ रामेश्चर पाठक के द्वारा तारा प्र‍िटिंग वर्क्स, बनारस से मुद्र‍ित हुआ ।
यह पुस्तक बिकानेर के महाराजा गंगा सिंह जी के उस वक्तव्य को प्रमुखता से दिखाती है जब उन्होनें पहली बार मदन मोहन मालविय को इस वि‍श्व‍वि‍द्यालय के संस्थापक के रूप में सम्मान दिया था । यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि बिकानेर के महाराजा का इन सब परिदृष्य में पदार्पण 1914-15 में हुआ था ज‍बकि वि‍श्व‍वि‍द्यालय की परिकल्पना और प्रारूप 1905 से ही शुरू हो गयी थी । पुस्तक के पहले पन्ने पर लॉर्ड हॉर्डिग के उस भाषण का अंश दिया गया है जिसमे वो वि‍श्व‍वि‍द्यालय की नींव का पत्थर रखने आये थे । लेकिन उनकी पंक्त‍ियों में कहीं भी किसी व्यक्त‍ि का नाम नहीं लिया गया है । चौथे पैराग्राफ में उस बात की चर्चा की गई थी कि नींव के पत्थर के नीचे एक कांस्य पत्र में देवी सरस्वती की अराधना करते हुए कुछ संस्कृत के श्लोक लिखे गये थे । पांचवे  पैराग्राफ में लिखा गया था कि 
"The prime instrument of the Divine Will in this work was the Malaviya Brahmana, Madana Mohana, lover of his motherland. Unto him the Lord gave the gift of speech, and awakened India with his voice, and induced the leaders and the rulers of the people unto this end.”
और इसलिए ये प्रसिद्ध हो गया कि मालवीय जी ही इस वि‍श्व‍वि‍द्यालय के एकमात्र संस्थापक हैं ।
किताब के छट्ठे पैराग्राफ में संस्कृत में मालवीय जी ने बिकानेर के महाराजा गंगा सिंह जी, दरभंगा के महा‍राजाधि‍राज रामेश्वर सिंह जी के साथ कॉंउसलर सुंदर लाल, कोषाध्यक्ष गुरू दास, रास विहारी, आदित्या राम और ले‍डी वसंती की चर्चा की है । साथ ही युवा वर्गों के कार्यों और अन्य भगवद् भक्तों का जिक्र किया है जिन्होनें कई प्रकार से इस विश्वविद्यालय के निर्माण में सहयोग दिया । इस पैराग्राफ में रामेश्वर सिंह के नाम को अन्य भगवद् भक्तों के साथ कोष्टक में रखा था जिन्हाने सिर्फ किसी तरह से मदद की थी । ऐनी बेसेंट का जिक्र इस अध्याय में करना उन्होंने जरूरी नहीं समझा ।
जबकि 1911 में छपे हिन्दू विश्वविद्याल के दर्शनिका के पेज 72 में लेखक ने इस विश्वविद्यालय के पहले ट्रस्टी की जो लिस्ट छापी है उसमे उपर से दंरभगा के महाराज रामेश्वर सिंह, कॉसिम बजार के महाराजाश्री एन सुब्बा रॉव मद्रास, श्री वी. पी. माधव राव बैंगलौर, श्री विट्ठलदास दामोदर ठाकरे  बॉम्बे, श्री हरचन्द्र राय विशि‍नदास कराची, श्री आर. एन. माधोलकर अमरोठी, राय बहादूर लाला लालचंद लाहौर, राय बहादूर हरिश्चन्द्र मुल्तान, श्री राम शरण दास लाहौर, माधो लाल बनारस, बाबू मोती चंद और बाबू गोविन्द दास बनारसराजा राम पाल सिंह राय बरेली, बाबू गंगा प्रसाद वर्मा लखनउ, सुरज बख्श सिंह सीतापुरश्री बी. सुखबीर मुजफ्फरपुर, महामहोपाध्याय पंडित आदित्या राम भट्टाचार्य इलाहाबाद, डॉ सतीश चन्द्र बैनर्जी इलाहाबाद, डॉ तेज बहादूर सापरू इलाहाबाद और पंडित मदन मोहन मालविय इलाहाबाद  का नाम लिखा गया था ।
अध्याय तीन जो पेज नंबर 80 से शुरू होता में इस बात की चर्चा कही नहीं की गई है कि किस प्रकार ऐनी बेसेंट ने बनारस में अपने केन्द्रीय हिन्दू महाविद्यालय को द यूनीवर्सिटी ऑफ इंडियामें तब्दील करने की योजना बनाई । ना ही एक भी शब्द में उस ‘’शारदा विश्वविद्यालय’’ का जिक्र किया जिसका सपना महाराजा रामेश्वर सिंह ने भारत के हिन्दू विश्वविद्याय के रूप में देखा था और जिसको लेकर उन्होंने पुरे भारत वर्ष में बैठकें भी की थी । इस पुस्तक में सिर्फ इस बात की चर्चा हुई की किस प्रकार अप्रैल 1911 में पंडित मालवीय जी, श्रीमती ऐनी बैसेंट जी से इलाहाबाद में मिले थी और प्रस्तावों पर सहमती के बाद किस प्रकार डील फाइनल हुई थी । ( इस पुस्तक में ना तो बैठकों की विस्तृत जानकारी दी गई है ना ही समझौते के बिन्दूओ को रखा गया है) उसके बाद वो महाराजा रामेश्वर सिंह से मिले और तीनो ने मिलकर धार्मिक शहर बनारस में एक विश्वविद्यालय खोलने का फैसला किया । पृष्ठ संख्या 80-81 पर साफ लिखा गया है कि यह कभी संभव नहीं हो पाता कि तीन लोग एक ही जगह, एक ही समय तीन यूनीवर्सीटी खोल पाते और उनको सही तरीके से संचालित कर पाते लेकिन लेखक ने उस जगह ये बिल्कुल भी जिक्र नहीं किया की उन तीनों की आर्थ‍िक, राजनैतिक, सामाजिक और उस समय के सरकार में पहुंच कितनी थी । खैर...
प्राप्त दस्तावेज से पता चलता है कि तीनों के बीच सहमति के बाद महाराजाधि‍राज दरभंगा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर लिया गया और तत्कालीन वॉयसराय और शि‍क्षा सचिव को पत्राचार द्वारा सूचित कर दिया गया गया । महाराजधि‍राज ने अपने पहले पत्र जो 10 अक्टूबर 1911 को अपने शि‍मला स्थ‍ित आवास से शि‍क्षा सचिव श्री हरकॉर्ट बटलर को लिखे थे में लिखा था -  भारत के हिन्दू समुदाय चाहते हैं कि एक उनका एक अपना विश्चविद्यालय खोला जाय । बटलर ने प्रतिउत्तर में 12 अक्टूबर 1911 को महाराजा रामेश्वर सिंह को इस काम के लिए शुभकमानाएं दी और प्रस्तावना कैसे तैयार की जाए इसके लिए कुछ नुस्खे भी दिये (पेज 83-85) । इस पुस्तक के पेज संख्या 86 पर लिखा गया है कि इस विश्वविद्यालय को पहला दान महाराजाधि‍राज ने ही 5 लाख रूपये के तौर पर दिया । उसके साथ खजूरगॉव के राणा सर शि‍वराज सिंह बहादूर ने भी एक लाख 25 हजार रूपये दान दिये थे ।
22 अक्टूबर 1911 को महाराजा रामेश्वर सिंह, श्रीमती एनी बेसेंट, पंडित मदन मोहन मालवीय और कुछ खास लोगों ने इलाहाबाद में एक बैठक की जिसमें ये तय किया गया कि इस विश्वविद्यालय का नाम ‘’हिन्दू विश्चविद्यालय’’ रखा जाएगा । यह दस्तावेज इस बात का भी सबूत है कि मदन मोहन मालवीय जी ने अकेले इस विश्वविद्यालय का नाम नही रखा था ।
28 अक्टूबर 1911 को इलाहाबाद के दरभंगा किले में माहाराजा रामेश्वर सिंह की अध्यक्षता में एक बैठक का आयोजन हुआ जिसमें इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के संविधान के बारे में एक खाका खीचा गया ( पेज संख्या 87) । पेज संख्या 90 पर इस किताब ने मैनेजमेंट कमीटी की पहली लिस्ट दिखाई है जिसमें महाराजा रामेश्वर सिंह को अध्यक्ष के तौर पर दिखाया गया है और 58 लोगों की सूची में पंडित मदन मोहन मालवीय जा का स्थान 55वां रखा गया है ।
इस किताब में प्रारंभि‍क स्तर के कुछ पत्रों को भी दिखाया गया है जिसमें दाताओं की लिस्ट, रजवाड़ों के धन्यवाद पत्र, और साथ ही विश्वविद्यालय के पहले कुलपति सर सुंदर लाल के उस भाषण को रखा गया है जिसमें उन्होंने पहले दीक्षांत समारोह को संबोधि‍त किया है ।  अपने संभाषण में श्री सुंदर जी ने महाराजा रामेश्वर सिंह, श्रीमती एनी बेसेंट और पंडित मदन मोहन मालवीय जी के अतुलित योगदान को सराहा है जिसके बदौलत इस विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ । यहाँ गौर करने वाली बात ये भी है कि अपने संभाषण में उन्होंने कभी भी पंडित मदन मोहन मालवीय जी को संस्थापक के रूप में संबोधि‍त नही किया है ( पेज 296)। इस किताब के दसवें अध्याय में पंडित मदन मोहन मालवीय जी के उस संबोधन को विस्तार से रखा गया है जिसमें उन्होंने दिक्षांत समाहरोह को संबोधि‍त किया था । यह संबोधन इस मायने में भी गौरतलब है कि इस पूरे भाषण में उन्होंने एक भी बार महाराजा रामेश्वर सिंह, श्रीमती ऐनी बेसेंट, सर सुंदर लाल आदि‍ की नाम बिल्कुल भी नहीं लिया । उन्होंने सिर्फ लॉर्ड हॉर्डिग, सर हरकॉर्ट बटलर और सभी रजवाड़ो के सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद दिया ।
आज भारत के विभि‍न्न पुस्तकालयों, आर्काइव्स और में 1905 से लेकर 1915 तक के बीएचयू के इतिहास और मीटींग्स रिपोर्ट को खंगालने से यह पता चलता है कि जो भी पत्राचार चाहे वो वित्तीय रिपोर्ट, डोनेशन लिस्ट, शि‍क्षा सचिव और वायसराय के साथ पत्राचार, रजवाड़ाओं को दान के लिए पत्राचार हो यो अखबार की रिपोर्ट हो या नि‍जी पत्र आदि ऐसे तमाम दस्तावेज है जिसमें ना ही पंडित मदन मोहन मालवीय जी को इसके संस्थापक के रूप में लिखा गया है ना ही कोई भी पत्र सीधे तौर पर उन्हे लिखा गया है । पत्राचार के कुछ अंश जो इसमाद के पास है उससे साफ साबित होता है कि सभी पत्राचार महाराजा रामेश्वर सिंह जी को संबोधि‍त कर लिखे गये हैं । ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि बीएचयू के लिखि‍त इतिहास में जहां रामेश्वर सिंह को महज एक दानदाता के रूप में उल्लेखि‍त किया गया है और तमाम दानदाताओं की सूची के बीच रखा गया है । ऐसे व्यक्त‍ि‍ को इन तमाम दस्तावेजो में बीएचयू के आंदोलन के नेतृत्वकर्ता या फिर बीएचयू के आधि‍कारीक हस्ताक्षर के रूप में  संबोधन कैसे किया गया है । किसी संस्थान के महज दानकर्ता होने के कारण किसी व्यक्त‍ि के साथ ना तो ऐसे पत्राचार संभव है और न हीं ऐसा संबोधन संभव है । अगर इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता कोई और थे तो पत्राचार उनके नाम से भी होने चाहिये थे । वैसे ही अगर दानकर्ताओं के लिए यह एक संबोधन था तो ऐसे संबोधन अन्य दानदाताओं के लिए भी होने चाहिये थे । लेकिन ऐसे कोई दस्तावेज ना तो बीएचयू के पास उपलब्ध है और ना ही किसी निजी संग्रहकर्ता के पास । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या रामेश्वर सिंह महज एक दानदाता थे या फिर उन्हें दानदाता तक सिमित करने का कोई सूनियोजित प्रयास किया गया ।
तमाम दस्तावेजों को ध्यान रखते हुए यह कहा जा सकता है कि बीएचयू का वर्तमान इतिहास उसका संपूर्ण इतिहास नहीं है और उसे फिर से लिखने की आवश्यकता है । अपने सौ साल के शैक्षणि‍क यात्रा के दौराण बीएचयू ने कभी अपने इतिहास को खंगालने की कोशि‍श नहीं की । 2016 में बीएचयू की 100वीं वर्षगांठ मनाया जायेगा । ऐसे में बीएचयू के इस अधूरे इतिहास को पूरा करने की जरूरत है ।

(मूल आलेख तेजकर झा)                                                            साभार : www.esamaad.com 

Tuesday, October 4, 2011

उत्‍तर बिहार में शास्‍त्रीय संगीत की सूखती रसधार



आशीष झा
अगर हम उत्‍तर बिहार में शास्‍त्रीय संगीत के इतिहास पर गौर करें तो यह साबित होता है कि इस इलाके ने बिहार के सामाजिक और संस्‍कृतिक जीवन में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की है। लोक नृत्‍य संगीत ही नहीं, अभिजात्‍य संगीत की परंपरा भी भूलाई नहीं जा सकती। यहां के लोग संगीत को जीवन का अभिन्‍न अंग मानकर उसे विकसित करते रहे हैं। यही कारण है कि मिथिला के लोक गीतों में भी शास्‍त्रीयता की गहरी छाप देखी जा सकती है। कभी ख्‍याल और ध्रुपद की उत्‍तर बिहार खासकर मिथिला में तूती बोलती थी, आज वह रसधार सूख चुकी है। आम लोगों की बात तो दूर उन घरानों में भी संन्‍नाटा पसरा है। कहीं संगीत के प्रति वह पागलपन देखने को नहीं मिलता। कहने के लिए अब भी इन घरानों की नई पीढी रोज रियाज कर रही है, लेकिन फिर भी उत्‍तर बिहार में शास्‍त्रीय संगीत के प्रति लोगों में वो जिज्ञासा नहीं देखी जा रही है, जो दिखनी चाहिए। आज ध्रुपद की अपेक्षा ख्‍याल गायकी के प्रति युवाओं में इच्‍छा देखी जा रही है। संरक्षकों का अभाव या फिर संगीत से टूटते रिश्‍ते, कारण जो भी हो, लेकिन गायकों के रियाज मे भी वह अनुशासन नहीं दिखता, जो इनके पूर्वजो में पाया जाता था। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि 250 साल से अधिक पुरानी उत्‍तर बिहार की शास्‍त्रीय गायकी की धारा अगर सूखी नहीं है, तो उसमें वो बहाव भी नहीं रहा।

00000000000000000000000000
कर्नाट वंश की देन है शास्‍त्रीय संगीत
मिथिला मे संगीत का इतिहास 11वी सदी से मिलता है। उस वक्‍त इस क्षेत्र पर सिंहराव के कर्णाट वंश का शासन था। उस समय इस वंश केशासक न्‍यायदेव (1097-1134) ने संगीत को स्‍थापित करने मे अहम भूमिका निभाई। मिथिलेश न्‍यायदेव उच्‍च कोटि के कला जोहरी तो थे ही खुद भी महान संगीतज्ञ थे। उन्‍होंने रागों का सम्‍यक विश्‍लेषण और वर्गीकरण कर राग संगीत को नई दिशा प्रदान की। उनके द्वारा लिखि गई पुस्‍तक सरस्‍वती ह़यदालंकार की पांडुलिपि आज भी पुणे मे सुरक्षित है। वैसे यह पुस्‍तक भारत भाष्‍य के नाम से भी प्रसिद्ध है। उनके समकालीन मिथिला के भोज, सामश्‍वर, परमर्दी, शारंगदेव आदि भारतीय संगीत के महान शास्‍त्रकार हुए। खडोरे वंश के मिथिला नरेश शुभंकर (1516-1607) को कुछ विद्वान बंगाल निवासी मानते हैं, लेकिन अधिकांश लोगों का मानना है कि वे मिथिलावासी थे। ल्‍वेयन भी अपने रागतिरंगनी मे इनका एक मैथिल के रूप मे ही जिक्र करते हैं। शुभंकर ने संपूर्ण संगीत को एक नई उंचाई प्रदान की श्रीहस्‍तमुक्‍तावली के साथ साथ उन्‍होंने संगीत दामोदर की रचना की। संगीत दामोदर मे ही पहला मैथिल राग शुभग का उल्‍लेख मिलता है। इस ग्रंथ मे पहली बार 101 तालों की चर्चा की गई है। शुभंकर ने इस ग्रंथ मे यह भी साबित करने की कोशिश की है कि बीना के 29 प्रकार हैं। मार्गी संगीत को मिथिला में मान्‍यता ही नहीं भरपूर आनंद भी मिलता है। कर्नाट वंश के अंतिम राजा मिथिलेश हरि सिंह देव के दरबारी मैथिल विद्वान और कुशल संगीतज्ञ ज्‍योतिश्‍वर ठाकुर 14वी सदी के कलावंत का उल्‍लेख विद्वावंत के रूप मे किया है। ज्‍योतिश्‍वर ने पहली बार 18 जाति, 22 श्रुति और 21 मुर्च्‍छना की खोज की। चूंकि न्‍यायदेव कर्नाट से आए थे जाहिर है कि वे अपने साथ कर्नाटीय पद्धति भी लाए होंगे। इस संबंध मे कला विद्वान गजेंद्र सिंह कहते हैं कि बहुत संभव है कि मिथिला का प्रथम विख्‍यात राग तिरहुत मूलत: कर्नाट पद्धति की ही देन हो। मिथिला के विख्‍यात संगीतका, शास्‍त्रकार और राग तिरंगीनी के प्रणेता लोचन कवि (1650-1725) ने मिथिला मे रागों की उत्‍पत्ति नाद-तिरुपण और तिरहुत देस मे प्रचलित राग गीत, छंद, ताल आदि की सविस्‍तार चर्चा की है। ऐसे कई रागों का जन्‍म उन्‍होंने इस ग्रंथ के माध्‍यम से दिया जिसकी मिथिला को संगीत की बंलंदियों पर ला खडा किया। इस ग्रंथ मे कई ऐसे राग मौजूद हैं। लोचन ने आडाना जैसे रागों को रच कर मिथिला की शास्‍त्रीय संगीत परंपरा को एक ठोस आधार प्रदान किया। समस्‍त भारत इस बात पर एक मत है कि मध्‍य काल मे रागतरंगिनी उत्‍तर भारतीय संगीत का मानक ग्रंथ है। मध्‍य काल मे मैथिल संगीतज्ञों की पूरे भारत मे धूम रही। इस कालखंड मे मिथिला के संगीतज्ञों ने बंगाल व उत्‍तरप्रदेश मे काफी ख्‍याति अर्जित की। पीसी बागची की रचना भारत और चीन के अनुसार 7वीं से 10वीं सदी में इनकी धूम चीन मे भी काफी थी। मिथिला के बुधन मिश्र 12वीं सदी के महान कवि जयदेव के समकालीन थे। उत्‍तर प्रदेश से त्रिपुरा तक अपने संगीत का जोहर दिखानेवाले इस संगीतज्ञ ने एक बार जयदेव को भी ललकारा था। अपने समय के इस सबसे बडे संगीत प्रतियोगिता मे बुधन मिश्र ने विजय प्राप्‍त कर मिथिला का परचम पूरे देश मे लहराया था। कर्नाट वंश के मिथिला नरेशों मे न्‍यायदेव से लेकर हरिसिंह देव (1303-26) तक छह पुश्‍तों मे संगीत की परंपरा प्रबल रही। मुस्लिम आक्रमण के कारण 1326 मे हरिसिंह देव नेपाल जाकर बस गए। वहां हरिसिंह ने नेपाली संगीत को संवारा और संपन्‍न किया।

00000000000000000000000000000000000000000

यहां निर्मित कुछ राग
उत्‍तर बिहार की जमीन पर कई राग रचे गए। यहां रचे अधिकतर राग या तो राग निर्माताओं के साथ ही खत्‍म हो गए या फिर कुछ एक घराने में पीढियों के पास सुरक्षित है। बेतिया के संगीतप्रेमी नरेश आनंद किशोर द्वारा निर्मित ध्रुपद संगीत के ग्रंथ आनंद सागर में कई ऐसे रागों का जिक्र मिलता है जिसका जिक्र और कहीं उपलब्‍ध नहीं है। इन रागों में राग सुरह, राग शंख, राग सिंदुरा मल्‍हार आदि महत्‍वपूर्ण कहे जाते हैं। लोचन ने भी कई ऐसे रागों का निर्माण या रचना की जो केवल तिरहुत में ही गाये जाते हैं। लोचन द्वारा रचित रागों में गोपी बल्‍लब, बिकासी, धनछी, तिरोथ, तिरहुत आदि प्रमुख कहे जाते हैं। दरभंगा के महाराजा रामेश्‍वर सिंह के नाम पर रामेश्‍वर राग का भी यहां निर्माण हुआ था। इस प्रकार का जिक्र भी पुस्‍तकों में मिलता है। मिथिला में रचित अन्‍य रागों में राग मंगल, राग देस, राग स्‍वेत मल्‍हार, रत्‍नाकर व भक्‍त विनोद आदि प्रमुख हैं।

000000000000000000000000

ध्रुपद मैथिली संगीत का एक ध्रुव
शारंदेव ने 13वीं सदी में प्रबंध के लगभग 300 प्रकारों का वर्णन किया। उनमें से एक प्रबंध सालगसूड के अवयबों मे ध्रुव का जिक्र मिलता है। माना जाता है कि ध्रुव से ही ध्रुपद का प्रदुभाव हुआ। स्‍थाई अंतरा संचारी और अभोग में शब्‍द स्‍वर तथा लय का जैसा सुंदर संमवित स्‍परूप ध्रुपद मे देखने को मिलता है वैसा अन्‍य किसी गेय विधा मे नहीं मिलता। इसी लिए ध्रुपद को हिंस्‍दुस्‍तानी संगीत का ब्राहमण कहा जाता है। प्राचीन काल में ध्रुपद एक समूह गायन था जिसको मूगल काल मे एकल प्रस्‍तुति किया जाने लगा। दरसल ध्रुपद गायकी गंभीर प्राचीन होने के साथ अध्‍यात्‍मिक भक्ति का सृजन करता है। जिसको साधक शांत भाव से और धीर गंभीर गमक आदि द्वारा ध्रुपद गायन को व्‍यक्‍त करता है। उत्‍तर बिहार मे ध्रुपद की दो परंपराएं विकसित हुई जो बेतिया और दरभंगा राज्‍य के संरक्षण मे फलती-फूलती रही। इन दोनों घरानों मे बेतिया घराना प्राचीन है। इस घराने का उदभव 17वीं सदी के आसपास माना जाता है। इन दोनों राजवारे के शासन ने केवल इन दोनों घरानों को संरक्षण नहीं दिया बल्कि इन राजवारों के राजा स्‍वयं उच्‍च कोटी के संगीतज्ञ भी थे। उत्‍तर बिहार मे ध्रुपद गायन और धराने को स्‍थापित करने का श्रेय बेतिया के राजा गज सिंह को जाता है।
दरभंगा के मल्लिक घराना लगभग 250 साल पुराना है। प्रख्‍यात लोक गायिका जयंती देवी के अनुसार राधाकृष्‍ण और कर्ताराम नामक दो भाई मिथिला नरेश माधव सिंह( 1775-1807) के शासन काल में पश्चिम भारत शायद राजस्‍थान से दरभंगा आए। प्रख्‍यात ख्‍याल गायक रामजी मिश्र का कहना है कि नींव किसी ने भी रखी हो लेकिन दरभंगा घराने के प्रथम नायक छितिपाल मल्लिक थे। 1936 मे मुजफ़फरपुर के संगीत मर्मज्ञ बाबू उमाशंकर प्रसाद द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्‍मेलन मे दरभंगा घराने के महावीर व रामचतुर मल्लिक बंधु द्वारा ऐसा युगल गायन प्रस्‍तुति किया गया कि वहां आए सभी गुणीजनों ने एक मत से उन्‍हें संगीताचार्य की उपाधि से विभूषित किया। बाद में भारत सरकार ने रामचतुर मल्लिक और सियानाम तिवारी को पद़मश्री से नवाजा।
आज ध्रुपद मिथिला के लिए अंजान बन चुका है। इसके संबंध में बतानेवाले भी कम हो चुके है। दरभंगा स्थित ध्रुपद विद्यालय भी कहने मात्र को है। संगीत का कोई बडा आयोजन पिछले 22 साल से नहीं हुआ है। अच्‍छे कलाकार क्षेत्र छोड चुके हैं।
आज ध्रुपद की अपेक्षा ख्‍याल गायकी के प्रति युवाओं में इच्‍छा देखी जा रही है। इसका कारण ख्‍याल की लोकप्रियता और आर्थिक पक्ष माना जा रहा है। उत्‍तर बिहार में इस रुझान को बढावा देने का काम रामजी मिश्र ने किया। कभी ध्रुपद गाने वाला मधुबनी घराने के वारिस रामजी मिश्र की ख्‍याति आज ध्रुपद से ज्‍यादा ख्‍याल गायन से है। इन्‍होंने अपने पिता आद्या मिश्र से ध्रुपद की शिक्षा ली, लेकिन बाद में इनका रुझान ख्‍याल की तरफ हुआ और फिर ख्‍याल की विधिवत शिक्षा ग्रहण कर 1956-58 में इन्‍होंने राष्‍टपति से स्‍वर्ण पदक प्रप्‍त किया। मिश्र के पास जहां घराने से मिली ध्रुपद गाने की क्षमा दिखी, वहीं ख्‍याल गायकी के प्रति व्‍यक्तिगत रुझान के कारण ख्‍याल गायकों में अपनी एक अलग पहचान देश भर में बना लिया। रामजी मिश्र ने दरभंगा स्थित मिथिला विश्‍वविद्यालय में संगीत विभाग खुलवाने में अहम भूमिका निभाई।


बेतिया घराना
बेतिया घराना उत्‍तर बिहार का पहला संगीत घराना है। इस घराने का उदभव 17वीं सदी के आसपास माना जाता है। उत्‍तर बिहार मे ध्रुपद गायन और इस घराने को स्‍थापित करने का श्रेय बेतिया के राजा गजसिंह को जाता है। दिल्‍ली दरबार के अंत के साथ ही वहां के गवैये को छोटे राजाओं की जरूरत महसूस होने लगी। इस क्रम मे राजा गजसिंह ने कुरूक्षेत्र के पास के एक गांव के गवैयों चमारी मल्लिक (गायक) और कंगाली मल्लिक (बीनकार) को अपने साथ बेतिया लाकर दरबार का प्रमुख संगीतज्ञ नियुक्‍त कर दिया। यही से इस घराने का शुभारंभ माना जाता है। बेतिया घराने के ध्रुपदिय गायक अपने गायन मे संक्षिप्‍त अलाप और बेलबाट वर्जित रखते हैं। ये संपूर्ण गायन के लय मे कोई बदलाव नहीं करते। इस घराने के गायकों के गायन मे ख्‍याल की तरह विस्‍तार भी वर्जित है। दंदिशया रचनाओं मे फेरबदल किये बिना रागानुकुल गायन इनकी सबसे प्रमुख विशेषता है। अंतिम सोनिया उस्‍ताद अली खां से प्राप्‍त ध्रुपद की बंदिशें केवल बेतिया घराने मे ही उपलब्‍ध था। बेतिया घराने के दिग्‍गज ध्रुपदियों की वंश परंपरा को महंत मिश्र ने अपने कंधो पर उठाया रखा। आज इस घराने का दारोमदार पंडित इंद्रकिशोर मिश्र के कंधे पर है। उनकी बेटी इस घराने की उम्मीद है।
आज यह घराना अपने स्‍वर्ण काल मे नहीं है लेकिन यह सुखद आश्‍चर्य है कि 200 साल पहले बेतिया नरेश द्वारा लगाई गई इस संगीत बगिया के ये फूल मुडझाते हुए भी अपनी खूशबू बिखेरने में अभी भी संक्षम हैं। फिर भी इतना तो मानना ही पडेगा कि फूल मुडझा चुके हैं।
इस घराने के अनमोल रत्‍न : गोपाल मल्लिक, कांके मल्लिक, फजल हुसैन, काले खां, श्‍यामा मल्लिक, उमाचरण मल्लिक, गोरख मल्लिक, राजकिशोर मल्लिक, महंत मल्लिक, शंकरलाल मल्लिक आदि प्रमुख है।

0000000000000000000000000000000000000000000000

दरभंगा घराना
दरभंगा के मल्लिक ध्रुपदियों की परंपरा कोई 200 साल की है। राधाकष्‍ण और कर्ताराम नामक दो भाई मिथिला नरेश माधव सिंह (1775-1807) के शासन काल मे पश्चिम भारत शायद राजस्‍थान से दरभंगा आए। ये लोग दरभंगा के मिश्रटोला मे बस गए। बाद मे महाराज ने इन लोगों को अमता गांव के पास गंगदह मे जमीन देकर बसा दिया। कहा जाता है कि इन्‍होंने ही दरभंगा घराने की नींव रखी। दरभंगा के मल्लिक ध्रुपदीय गौडबानी ध्रुपद गाते हैं। गौडबानी ध्रुपद मे स्‍वर विस्‍तार की जो संयोजन करते हैं, वो रंजकता से परिपूर्ण है और उदभुत होती है। यही इनकी पंडित्‍यपूर्ण गायकी की और संबल परंपरा को दिखाती है। दरभंगा घराने के गायन की विशेषता यहां के गायकों के नोम-तोम की अलापचारी मे है। दरभंगा घराने की छाप मिथिला समाज पर यहां तक देखी जाती है कि मिथिला के अधिकतर परंपरागत लोक गीतों की बंदिश ख्‍याल मे न होकर ध्रुपद मे ही की हुई है। यह महज दुर्भाग्‍य है कि मैथिल कोकिल विद्यापति की रचनाओं को उस हद तक ध्रुपद मे अब तक नहीं गाया जा सका है। दरभंगा घराने के दो गायकों को भारत सरकार ने पद़मश्री से नवाजा है। सबसे पहले इस सम्‍मान पंडित रामचतुर मल्लिक को दिया गया और बाद में सियाराम तिवारी को इस सम्‍मान से नवाजा गया। दरभंगा मे घ्रुपद का आखरी बडा आयोजन हुए 20 साल बीत चुके हैं। इस घराने के अधिकतर प्रतिनिधि मिथिला को छोड अन्‍य प्रदेशों मे रह रहे हैं। वैसे राम कुमार मल्लिक दरभंगा में हैं और उनके तीन पुत्र और पुत्री इस परंपरा को आगे ले जाने में लगे हुए हैं। लेकिन इस मामले में दरभंगा को सबसे बडा झटका तब लगा जब विदुर मल्लिक यहां से विदा हुए। विदुर मल्लिक रामचुतुर मल्लिक के बाद सबसे कुशल गायक थे। मिथिला की लोक गायिका जयंती देवी का कहना है कि विदुर का जाना एक प्रकार से यहां से ध्रुपद का जाना कहा जा सकता है। वे कहती हैं कि विदुर को अभय के समान रामचतुर जी ने प्रमोट नहीं किया, फिर भी विदुर ने जो स्‍थान ध्रुपद के क्षेत्र में बनाया वो दरभंगा घराने की माटी में बसे संगीत को ही साबित करता है। विदुर जरूर मिथिला को छोड वृदांवन में जा बसे, लेकिन वे कभी दरभंगा से जुदा नहीं हो सके। इसी प्रकार अभय नारायण मल्लिक खैडागढ, जबकि विदुर मल्लिक के पुत्र प्रेमकुमार मल्लिक इलाहाबाद मे जा बसे। जो कुछ भी हो आज दरभंगा खुद इस घराने के प्रति अंजान हो चुका है। लेकिन उम्मीद कभी कायम है। इस घराने ने प्रियंका के रूप में जहां पहली महिला गायिका पा लिया है, वहीं मल्लिक परिवार की 13वीं पीढ़ी के आठ गायकों ने इस उम्मीद को पुख्ता किया है कि इतिहास दोहरा सकता है।

इस घराने के अनमोल रत्‍न : कर्ताराम मल्लिक, कन्‍हैया मल्लिक, निहाल मल्लिक, रंजीतराम मल्लिक, गुरुसेवक मल्लिक, कनक मल्लिक, फकीरचंद मल्लिक, भीम मल्लिक, पद़मश्री सियाराम तिवारी आदि।

00000000000000000000000000000000000

मिथिला के ख्‍यालों में जा बसा ख्‍याल
ख्‍याल का अर्थ ही है कल्‍पना या अपनी कल्‍पना से स2जन करना। अर्थात ख्‍याल गायक अपनी साधना में गंभीरता के साथ साथ चंचल प्रक2ति को भी दिखाता है। इसे दिखलाने के लिए गायक अपने गले मे अधिक तैयारी मुरछना, तान तथा लयों के विभिन्‍न प्रकारों को आ‍कर्षक ढंग से श्रोताओं के समक्ष प्रस्‍तुति करता है। अभिजात्‍य संगीत के अंतर्गत न केव ध्रुपद बल्कि ख्‍याल विशेष कर ठुमरी की सम2द्ध परंपरा मिथिला मे रही है। यद्यपि ध्रुपद के समान मिथिला मे ख्‍याल का कोई बडा घराना नहीं हुआ। लेकिन कुछ एक छोटे घराने व कुछ महान कलाकारों ने इसे मिथिला मे स्‍थापित ही नहीं बल्कि अपने गायन से दुनिया को सम्‍मोहित किया। ख्‍याल गायकों मे सबसे उल्‍लेखनीय स्‍थान पूर्व मिथिला के बनैली राज्‍य के कुमार श्‍यामानंद सिंह का है। इनको ख्‍याल से विभिन्‍न घराने के पुराने गुणिजनों से मार्गदर्शन प्राइज़ था। कुमार साहब पेशेवर गायक नहीं थे, लेकिन उनकी ख्‍याति का प्रमाण इसी से लगाया जा सकता है कि उस्‍ताद बिलायत हुसैन उन्‍हें उत्‍तर भारत का सर्वर ख्‍याल गायक मानते थे। गजेंद्र नारायण सिंह की पुस्‍तक में मिथिला के एक और महान ख्‍याल गायक का जिक्र मिलता है। पंचगछिया (सहरसा) के रायबहादुर लक्ष्‍मीनारायण सिंह का टहलू खबास (नौकर) मांगन अपने समय का महान ख्‍याल गायक था। उसकी ख्‍याति दूर देश तक फैली हुई थी। उसने ओंकारनाथ ठाकुर को भी अपने गायन से प्रभावित किया था। रसभरी ठुमरी गायन मे उसका कोई जोर नहीं था। कहा जाता है कि वह जब मेघ जैसा वर्षाकालीन राग गाता था तो आसमान मे बादल छा जाते थे। 1936 के आसपास मंगन ने बंगाल और पूर्वी प्रदेशों मे अपने गायन की गहरी छाप छोडी। इसी दौरान मंगन पंचगछिया से दरभंगा आ गए। वह जल्‍दी ही दरभंगा के संगीत प्रेमी राजबहादुर विशेश्‍वर सिंह का खास गायक बन गए। संगीत जगत के लिए इसे अभिशाप ही कहेंगे कि इस अदभुत गायक का ना तो रिकार्ड ही बन पाया और न ही कोई तसवीर ही खींची जा सकी। मंगन जैसा उदाहरण शायद ही विश्‍व में कहीं और मिले जो एक चाकर से महान गायक बन गया।
ख्‍याल गायकों पनिचोभ मधुबनी) के गायकों का भी महत्‍वपूर्ण स्‍थान माना जाता है। इस धराने के सबसे विलक्ष्‍ण गायक अबोध झा 1840-1890) के पुत्र रामचंद्र झा(1885) थे। वैसे ये बनैली राज घराने में गाया करते थे, लेकिन इनका गायन दरभंगा राज दरबार में भी होता रहता था। ख्‍याल गायकी का बगिया आज बागवान का इंतजार कर रहा है।

000000000000000000000

स्‍मरण
ए रामचतुरबा तू का गैवे

दरभंगा राज का दरबार हॉल श्रोताओं से भरा हुआ था। महाराज और उनके छोटे भाई कजनी बाई की ठुमरी का आनंद ले रहे थे। कजनी बाई की ठुमरी खत्‍म होते ही राजाबहादुर ने रामचतुर मल्लिक को गाने का आदेश दिया। ध्रुपद के इस गायक को ठुमरी गाने का आदेश सुन कजनी बाई से रहा न गया। उसने मुस्‍कुराकर कहा- ए रामचतुरबा तू का गैवे। रामचतुर मल्लिक बिना कुछ बोले ठुमरी की बंदिश गाने लगे। कुछ ही पल बाद कजनी बाई ने एक और बंदिश सुनने की ख्‍वाइश जाहिर की। ध्रुपद के इस महान गायक का मानना था कि जो ध्रुपद गा सकता है वो सब कुछ गा सकता है। दरभंगा घराने के इस रत्‍न का जन्‍म 1902 से 1907 के बीच बताया जाता है। लेकिन अधिकतर लोगों का मत है कि उनका जन्‍म 1907 मे दरभंगा के अमता गांव में हुआ था। पंडित जी के पडोसी होने के नाते मुझे उन्‍हें देखने और सुनने का मौका मिला। लेकिन बचपन की मस्‍ती ने कभी बैठकर या रूक कर उन्‍हें सुनने न दिया। जब भी कभी हमारे मित्र मुझे हकलाने पर चिढाते थे, पंडित बाबा मुझे कहा करते थे कि गा कर बात कर, नहीं गहलाएगा। पंडित जी का लोहा डागर बंधु भी मानते थे। उन्‍हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी अवार्ड और भारत सरकार द्वारा पद़मश्री से नवाजा गया, वहीं खैरागढ विश्‍वविद्यालय ने डॉक्‍टर की उपाधि देकर उन्‍हें सम्‍मानित किया। रामचतुर मल्लिक मिथिला की संगीत परंपरा को सुदूर यूरोपीय देशों तक ले गए। उनके पास प्रचीन बंदिशों का खजाना था। उस्‍ताद फैयाज खां के बाद वही एक मात्र गायक हुए जो चारों पट कुशलतापूर्व गा सकते थे। बिहार सरकार की बेरुखी और लंबी बीमारी ने इस महान गायक को हमेशा के लिए खामोश कर दिया। जनवरी 1990 में उनके निधन से मिथिला की रसधार सूख गई। रामचतुर मल्लिक के बाद मिथिला मे ध्रुपद का एक प्रकार स अंत ही हो गया। आज मिथिला में ध्रुपद को बचाना ही उनके प्रति सच्‍ची श्रद्धांजलि होगी।


व्‍यवसायिकता से दूर एक कला साधक
कुमार श्‍यामानंद सिंह की भतीजी की शादी में खास तौर पर पंडित जसराज को गाने के लिए बनैली बुलाया गया। सुबह जसराज ने मंदिर में किसी को भजन गाते सुना। वहां जाने पर गानेवाला और कोई नहीं कुमार साहब खुद थे। भजन सुनते-सुनते जसराज रोने लगे। पूछने पर उन्‍होंने कहा कि जो भजन ऐसा गा सकता है वो ख्‍याल कैसा गाएगा। रात की महफिल में जसराज कुमार साहब से कई ख्‍याल की बंदिश सुनी। कुमार श्‍यामानंद सिंह का जन्‍म पूर्व मिथिला के बनैली राज घराने में हुआ। कुमार साहब पेशेवर गायक नहीं थे। यही कारण है कि आधुनिक गायक उनके विषय में कम ही जानते हैं। लेकिन कुमार साहब की संगीत में गहरी पैठ थी। वे कई बडे गबैये को अपना कायल बना चुके थे। प्रख्‍यात केसर बाई केरकर के साथ घटी घटना का जिक्र गजेंद्र नारायण सिंह अपनी पुस्‍तक में किया है। 1946 की एक महफिल में केसर बाई कुमार साहब की बंदिश सुनकर उनसे गंडा बांधने के लिए तैयार थी। इस बंदिश का स्‍थाई तो केसर बाई ने अपने गले में उतार लिया, लेकिन अंतरा नहीं उठा सकी। इसका उन्‍हें मरते दम तक गम रहा। इस प्रकार की एक और घटना का जिक्र उक्‍त किताब में किया गया है। कहरवे अवध एक बंदिश में कुमार साहब के साथ संगत कर रहे मशहूर तबला वादक लतीफा के हाथ तबले पर ही धरे रह गए। कुमार साहब के एक रिश्‍तेदार का कहना है कि कुमार साहब का मानना था कि ताने अलंकार हैं। अलंकार धारण करने के लिए आधार यानि शरीर चाहिए। और बंदिश वही शरीर है।
1986 में दरभंगा में आयोजित ध्रुपद समारोह में कुमार साहब ने भी भाग लिया था। तभी मुझे भी उनसे मिलने का मौका मिला। संयोग से वे हमारे नाना के घर पर ही रुके थे। कुमार साहब जब रियाज करते थे, तो संगीत नहीं जाननेवाला भी रुक कर उन्‍हें सुनने लगता था। ख्‍याल गायकी की जो कल्‍पना क्षमता उनमें थी शायद ही ऐसी क्षमता मिथिला में फिर देखने को मिले। कुमार साहब आज हमारे बीच नहीं हैं। उनका निधन 1995 में हो गया।

000000000000000000000000000000000000000000

परंपरा बचाने में लगे कुछ कला साधक

संगीत कुमार नाहर : बेतिया घराने में 1956 में जन्‍में संगीत कुमार नाहर बचपन से ही गायन की बानगी प्रस्‍तुत करने लगे। अपने दादा बद्रीनाथ मिश्र और पिता प्रह़लाद मिश्र से उन्‍होंने संगीत की शिक्षा प्राप्‍त की। आकाशवाणी में काम करते हुए बेतिया की संगीत परंपरा को बचाने में इन्‍होंने काफी योगदान दिया है। मिश्र एक कुशल संगीत रचनाकार के रूप में भी समस्‍त भारत में जाने जाते हैं। बेतिया घराने में आर्थिक बदहाली के बाद भी संगीत नाहर जैसे बंशजों कुछ ऐसी बंदिशें बचा रखी हैं जो और कहीं सुनने को नहीं मिलता है।

अभयनारायण मल्लिक : दरभंगा घराने के ध्रुपदियों की परंपरा को अभयनारायण मल्लिक आगे बढाने में लगे हुए हैं। अभयनारायण मल्लिक का जन्‍म 1938 में दरभंगा में हुआ। अभय नाराण ध्रुपद के महान गायक रामचतुर मल्लिक के शिष्‍य हैं। दरभंगा के संगीत प्रेमी राजबहादुर विश्‍वेश्‍वर सिंह का इन्‍हें आशिष प्राप्‍त था। ये अपने चाचा के समान ही ध्रुपद के साथ-साथ ठुमरी भी आसानी से गाने की क्षमता रखते हैं। केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी फलोशिप प्राप्‍त इस गायक ने मिथिला की गौरवशाली ध्रुपद परंपरा को सुदूर देश रोम और जर्मनी तक पहुंचाया। अभय नारायण का एचएमभी ने कई रिकार्ड और कैसेट भी निकाला है।

प्रेम कुमार मल्लिक : रामचुतुर मल्लिक के बाद दरभंगा घराने के सबसे कुशल ध्रुपद गायक विदुर मल्लिक के पुत्र प्रेमकुमार मल्लिक आज इस परंपरा को बचाए रखने में संघर्षरत हैं। देश में आज ध्रुपद गायकों में प्रेम कुमार का विशेष स्‍थान है। इनका जन्‍म दरभंगा में हुआ। प्रेम कुमार ने अपने गायन 1983 में यूरोपीय श्रौताओं को मोहित करने में वही सफलता हासिल की जो कभी उनके दादा रामचतुर मल्लिक ने की थी। प्रेम कुमार मल्लिक को 1980 मे राष्‍टपति से स्‍वर्ण पदक मिला और इन्‍होंने इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में अपनी गायन कुशलता को छात्रों में बांटी। आज इनके पुत्र और पुत्री प्रशांत मल्लिक और प्रियंका मल्लिक इस घराने की विशाल परंपरा को अपने कंधे पर उठाने को तैयार हैं।

बिहारी : बिहारी जी का जन्‍म 1966 में बनैली के राज परिवार में हुआ। अपने पिता कुमार श्‍यामानंद सिंह के समान ही इनको भी ख्‍याल गायकी में अच्‍छी पकड हासिल है। पिता के समान बिहारी भी पेशेवर गायक नहीं हैं। लेकिन जमींदारी चले जाने के कारण पिता के समान वे निजी तौर पर महफिलों का आयोजन नहीं कर पाते हैं। वैसे डागर बंधुओं ने उनके गायन में पिता की झलक देखने का दावा कर चुके हैं।
( मेरा यह आलेख 2001 में प्रभात खबर में छपा था, कुछ संशोधन के साथ यहां रख रहा हूं। )