इसमाद

Sunday, June 12, 2011

मिथिला की सामाजिक स्थिति: एक समाजशस्त्रीय अवलोकन

हेतुकर झा

ऐतिहासिकता , इतिहास बोध एवं ’आधुनिक इतिहास लेखन’ के प्रसंग पश्चिम के विद्वानों के बीच चिन्तन 18वीं सदी से प्रारम्भ हुआ।1 इनलाइटेन्मेंट के मूल सिद्धान्त ”ऐब्सट्रैक्ट लॉज“ जिसके तहत सामाजिक विभिन्नताओं और उसके इतिहास की उपेक्षा निहित थी2, के विरूद्ध जर्मनी के प्रसिद्ध चिन्तक जे. जी. हर्डर 1774 ई. में इतिहास की प्रासंगिकता और प्रधानता के पक्ष में अपनी पुस्तक - ए फिलासफी ऑफ हिस्टरी फॉर द एजुकेषन ऑफ ह्यूमैनिटी के जरिये तर्कपूर्ण विचार प्रस्तुत किये - इससे इतिहास के पक्ष में विद्वानों का सोच आगे बढ़ा। फिर रोमान्ट्सििस्ट्स विचार धारा बाले, उत्‍तरकालीन कान्ट के आदर्शवाद और मध्य 19वीं सदी के डार्विनिज्म , सब, एक के बाद दूसरे, के सम्मिलित प्रभाव से ऐतिहासिक दृष्टि की सामाजिक सत्यता प्रसंग औचित्य की, सार्थकता की पुष्टि होती गई, और, हिस्टोरिसिज्म , अर्थात् सामाजिक सत्यता की व्याख्या ऐतिहासिक आधार पर करनें की बात आगे आई।3 19वीं सदी के अन्त तक तीन प्रकार के हिस्टोरिसिज्म : ”नैचुरिलिस्टिक“ “मेटाफीजिकल“ और ”एस्थेटिक“ हिस्टोरिसिज्म तथा प्रसिद्ध ऐतिहासिक चिन्तक रैन्के से प्रेरित ”ऑब्जेक्टिव“ तिहास की धाराएँ दृष्टिगोचर थी। रैन्के की दृष्टि में इतिहासकार का काम मात्र ऐतिहासिक ”फैक्ट्स“ के शोध, संचयन, संकलन तक ही सीमित था - उसके मूल्यांकन का नहीं। 20वीं सदी के आरम्भिक काल में समाजशास्त्र के दो प्रधान संस्थापक - मैक्स वेबर4 और दुरखाईम5 इतिहास और समाजशास्त्र के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की ओर इशारा किये। मियेनेके और क्रोचे जैसे इतिहास-चिन्तकों ने वर्तमान के प्रश्‍नों एवं समस्याओं के सन्दर्भ में ही इतिहास अन्वेषण, मूल्यांकन, एवं परीक्षण को स्थापित किये - नैचुरलिस्टिक हिस्टोरिसिज्म के तहत ये सारे झुकाव इतिहास और समाजशास्त्र को इतना करीब ले आया कि 1920 के दशक से जर्मनी में हिस्टोरिकल सोशियोलोजी विकसित होने लगा। इसके तहत टेलियोलौजिकल , इवोल्यूशनरी और सिर्फ किसी एक आधार पर आश्रित इतिहास को हिस्टोरिकल सोशियोलोजी या सोशियोलोजिकल हिस्टरी में कोई जगह नहीं दी गई।6 लेकिन नाजी ताकत के वर्चस्व से 1930 के दषक में यह जर्मनी में समाप्त हो गया।
फिर फ्रांस में इसी दशक से मार्क ब्लॉच, फेब्रे तथा फरनैंड ब्रॉडेल जैसे एन्नेल्स स्कूल के इतिहासकार - चिन्तकों ने अपने विश्‍वविख्यात कृतियों से उपयुक्‍त विचारों को परिपक्व किये और उसे विद्वद्जगत में प्रतिष्ठा दिलाये। साथ ही इंगलैंड में 1940 के दशक से उभरता हुआ ”सोशल हिस्टरी“ हॉब्सबॉम और ई. पी. टॉम्प्सन के बहुमूल्य प्रयास और कृतियों से 1970 तक आते-आते प्रतिष्ठित हुआ जो फ्रांस के एन्नेल्स स्कूल के अनुसार ही था। ई. पी. टॉम्प्सन के तिरूवनन्तपुरम में आयोजित 1976 के इन्डियन हिस्टरी कांग्रेस के अधिवेषन में दिये गये भाषण से भारत के इतिहासकार लोग भी बहुत ही प्रेरित हुए।7 यहाँ भी ”हिस्टरी फ्रॉम बिलो“, अर्थात् विभिन्‍न श्रेणी और पेशों के जन समुदायों (जिनका स्थान निम्न स्तर पर रहा और जिनका इतिहास लेखन में स्थान नहीं रहा) ऐसे विषाल जन-समूहों को इतिहास लेखन में स्थान देने की प्रवृति प्रारम्भ हुई।8 1980 के दशक से सबऑल्टर्न प्रोजेक्ट की षुरूआत हुई - आप सब जानते ही हैं।
इतिहास लेखन के समानान्तर समाजशास्त्र में भी उसके अनुकूल परिवर्तन होते रहे। 1960 के दशक तक तो मुख्य रूप से यह इतिहास से दूर नैचुरल साइन्षेज के मॉडेल उसकी शोध-प्रणाली, उसी के राह का अनुयायी बना रहा।9 लेकिन, कई प्रसिद्ध समाजशास्त्री इस दौर में भी ऐतिहासिक समाजशास्त्र की परम्परा कायम किये। सोरोकिन, बान्र्स और बेकर, जार्ज होमन्स, इत्यादि इस सन्दर्भ में प्रमुख रहे। विख्यात ऐतिहासिक समाजशास्त्री, चाल्र्स टिल्ली, समाजशास्त्र की इस परम्परा के विकास को तीन तरंगों में व्याख्या प्रस्तुत किये हैं। पहला तरंग तो उपर्युक्त विद्वानों के योगदान से प्रारम्भ हुआ।10 दूसरा तरंग 1970 के दसक से बहुत ही गम्भीर और व्यापक रूप से उभरा। आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण के जो प्रोजेक्ट 18 वीं सदी के इनलाइटेन्मेन्ट के तहत प्रारम्भ हुआ था पूरे विश्‍व के लिये (पश्चिम के विचारकों की प्रेरणा से) उसके सारे स्वप्न, और वादे 20 वीं सदी के उतरार्ध तक आते-आते झूठे साबित हुए - विश्‍व का एक छोटा भाग धनी से और धनी होता गया, बाँकी बड़ा भाग गरीबी में डूबता गया - अन्डर डेवलपमेंट एक बड़ा प्रश्‍न बन गया, जिसके कारणों और स्वरूप के अध्ययन के लिये कई समाजशास्त्री ऐतिहासिक खोज की ओर मुड़े। मेक्रोहिस्टोरिकल सोशियोलोजी का विकास हुआ और इस क्रम में वैल्लरस्टाइन, माईकेल मान जैसे षास्त्रकारों का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। साथ ही समाजशास्त्र और इतिहास के बीच की दूरी दूर करनें की बात फिलिप एब्रम्स11(1980), चाल्र्स टिल्ली12(1980), ’सोशल हिस्टरी’ का उत्थान13 (गिडेन्स: 1981) बोर्डियो14 (1990), इत्यादि के प्रभाव से 1980 के दसक से जोर पकड़ती गई; जिसके फलस्वरूप तीसरे तरंग का उत्थान हुआ, हिस्टोरिकल सोशियोलोजी के जर्नल का प्रकाषन प्रारम्भ हुआ, हिस्टोरिकल सोशियोलोजी या सोशियोलौजिकल हिस्टरी को अमेरिका के विश्‍वविद्यालयों में प्रतिष्ठित स्थान दिया गया।15 आज, यह एक बहुत सशक्त बौद्धिक धारा के रूप में उभरता जा रहा है, जिसके तहत प्रधान तौर पर आज के समाज में अनेकता , उपेक्षित परम्पराएँ, उपेक्षित ज्ञान, सामाजिक और आर्थिक रूप से जो निम्न स्तर पर हैं उनकी स्थिति, अनुभव और सांस्कृतिक परम्परा, इत्यादि का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में षोध एवं अध्ययन करना ही उचित माना गया है।16 इस प्रसंग गुरूदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर के 1930 के दसक में कहे गये बातों का सहज स्मरण हो रहा है। शान्तिनिकेतन में एक विधवा अपनी कन्या का विवाह शास्त्रीय तरीके से करना चाहती थी। पंडितों ने विरोध किया कि नान्दी श्राद्ध विधवा नहीं कर सकती। गुरूदेव ने पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी से कहा कि हजारों वर्षों के हमारे इतिहास में यह पहली घटना तो नहीं ही होगी - ग्रन्थों का अवलोकन करें। पंडित जी सारे खोज किये और इसके पक्ष और विपक्ष में दिये प्राचीन आचार्यों के बचनों को गुरूदेव के समक्ष प्रस्तुत किये तथा साथ ही यह भी बताए कि विपक्ष के वचन ही समाज में मान्य रहे। गुरूदेव ने कहा कि क्या पक्ष में दिये वचनों के आचार्यगण हमारे लिये कम पूज्य हैं, क्या विपक्ष की ही परम्परा परम्परा है, पक्ष की परम्परा जिसकी उपेक्षा की गई वह भी तो हमारी ही परम्परा है - आज के प्रश्‍न जिस परम्परा से सार्थक है उसे इतिहास वोध में जगह होनी चाहिये।17 क्रोचे और आज के चिन्तन को गुरूदेव स्वतंत्र रूप से 70-75 वर्ष पहले कितनी सहज भाव से व्यक्त किये थे।
अभी तक जितना समय मैं ने लिया वह इसीलिये कि मैं आग्रह करना चाहता हूँ कि इन विषयों की ओर मिथिला की ऐतिहासिक धरातल पर ध्यान देने की चेष्टा की जाय। उपेक्षित वर्ग, उपेक्षित लोक (उच्च वर्ग के व्यक्ति भी उपेक्षित होते हैं जिनके योगदान जो आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं भुलाए जा चुके हैं या भुलाए जा रहे हैं), उपेक्षित विचार-धारा, परम्परा, इत्यादि जो आज के समाज के विषाल जन-समूह से सम्बन्धित है, इन सबका इतिहास, जिसे हम सामान्य जनों का इतिहास कह सकते हैं, तैयार हो सकता है। आप जानते हैं कि भारत के कई अन्य भू-भाग के तुलना में इस क्षेत्र पर शोध कम हुए हैं। आवश्‍यकता है कि शोध हो और वैसा शोध जो समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक सम्पूर्णता की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त शोध प्रणाली पर आधारित हो जिससे यहाँ के सोशल रियलिटी सही ज्ञान पैदा हो सके। मैं मानता हूँ कि आप इन बातों से अवगत हैं, इस ओर प्रायः प्रयासरत भी होंगे। लेकिन, इस ओर आपका ध्यान अधिक से अधिक जाय इस लिये मैनें कथित सारे शब्दों से आह्वान किया है।
अब मैं आपका ध्यान मिथिला में 14वीं-15वीं सदी और उसके बाद से उभरते सामाजिक-सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रवृतियों एवं उसके परिणामों की ओर ले जाना चाहता हूँ।
14वीं सदी की चण्डेश्‍वर ठाकुर कृत राजनीति रत्नाकर का 1936 ई. में बिहार एवं ओरिसा रिसर्च सोशाईटी द्वारा प्रकाशन हुआ, जिसके संपादक थे सर के.पी. जायसवाल। अपनें ”इन्ट्रोडशन“ में इन्होंने बहुत बातों का जिक्र किया। इनके अनुसार भारत में प्राचीन काल से चली आ रही ”अर्थशास्त्र“ और ”दण्डनीति“ की परम्परा 11वीं सदी तक समाप्त प्राय हो गई और धर्मशास्त्र का वर्चस्व बढ़ने लगा जिसके चलते राजतन्त्र सम्बन्धित विषयों का विवेचन भी अब धर्मशास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर ही प्रारम्भ हुआ।18 धीरे-धीरे मुस्लिम ताकतों का अभ्युदय होता गया, जिसके संक्रमण से प्रायः उस समय के बारे में, जायसवाल लिखते हैं: “…. Important are the norms which obtained at the close of the Hindu and the beginning of the Muhammadan periods. Originality and force are on the decline……..”.19 महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय समाज में ब्राह्मणीय/वैदिक वर्चस्व बढ़ रहा था, उदारवादी दृष्टिकोण जिससे समाज के विभिन्‍न सेकुलर गतिविधियों, विधाओं, और पेशाओं को बल मिलता वह क्षीण हो रहा था। अलबेरूनी 11वीं सदी में भारत आये थे; उन्होंने भी यह महसूस किया कि यहाँ की सामाजिक और राजनीतिक माहौल ऐसे हो गये हैं कि धर्मशास्त्रीय विद्याओं के अतिरिक्त सेकुलर विद्याएँ और धाराएँ न तो ठहर सकती हैं और न ही पनप सकती हैं।20 स्पष्ट है कि अलबेरूनी भी ब्राह्मणिक/वैदिक धारा के उभरते वर्चस्व और उसके संभावित परिणाम को अनदेखा नहीं कर सके। लेकिन, और क्या बातें हो रही थी उस कालखण्ड में इस प्रसंग, हमारे यहाँ के विश्‍वविख्यात इतिहासकार रामशरण शर्मा के अनुसार उच्च वर्णों (खासकर क्षत्रियों) से नीचे वर्णों के लोग भी विभिन्‍न क्षेत्रों में राजा/चीफ (प्रधान) बन रहे थे, जैसे जपला के ”खयरवाल“ शासक, पाल राजकुल, वर्धन राजकुल इत्यादि21। ऐसे राजाओं को समाज में अपने राजा-पद की औचित्य सिद्ध करने के लिये ब्राह्मणों का सहारा लेना पड़ा जो उनके लिये ऐसे (झूठे) कुर्सीनामें तैयार कर उन्हें प्राचीन काल के सूर्यवंशी या चन्दªवंशी प्रमाणित करते थे।22 बी.डी. चट्टोपाध्याय के अनुसार ऐसे राजे ब्राह्मणों के सहयोग पर निर्भर करने लगे जिसके बदले उन्हें काफी भू-सम्पति दान में प्राप्त होने लगा।23 एक दूसरे प्रख्यात इतिहासविद्, डेविड शूलमन, ब्राह्मणों के इस उभरते वर्चस्व की बात किये हैं।24 प्रायः यह क्रम बढ़ता ही गया और के.पी. जायसवाल के अनुसार, 14वीं सदी तक आते-आते चण्डेश्‍वर ने यह महसूस किया कि इस प्रवृति उभरने से जाति/वर्ण और पॉलिटी का शास्त्रीय सम्बन्ध वास्तविकता में मूलतः समाज में विच्छिन्न् हो चुका है; राज्याभिषेक की बात निरर्थक है और, प्रायः इसीलिये, एक तरह से क्रान्तिकारी व्यवस्था दिये कि राजा वही जो प्रजा की रक्षा करे, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ण का हो।25 चण्डेश्‍वर ठाकुर अपने समय, 14वीं सदी के प्रख्यात विद्वान राजपुरूष थे। पी.वी.काणे के अनुसार मिथिला और बंगाल के क्षेत्रों में चण्डेश्‍वर के दिये गये विचार और व्यवस्था का बहुत ही व्यापक प्रभाव पड़ा।26 इसी लिये शायद, अब ब्राह्मणों द्वारा निर्मित झूठे कुर्सीनामों का कोई प्रयोजन नहीं रहा - ऐसे कुर्सीनामों के बनने का कोई उदाहरण बाद के दिनों में प्रकाश में नहीं आये हैं - जहाँ तक मुझे ज्ञात है। चण्डेश्‍वर की व्यवस्था ही किसी जाति/वर्ण के राजा को मान्यता प्रदान करती गई। बहुत विश्‍वासपूर्वक तो नहीं कह सकते, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि चण्डेश्‍वर की इस व्यवस्था के चलते बहुत सी जातियों (जिन्हें हम अभी निम्न या दलित वर्गों के मानते हैं) के लोग भी अलग-अलग इलाके में राजा या चीफ (प्रधान) बने, अपने शासन चलाए। 1883 ई. में (उर्दू में) प्रकाशित पुस्तक आईना-ए-तिरहुत में लेखक बिहारी लाल ‘फितरत‘ अपनें फील्ड सर्वे से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निम्न लिखित गढ़ों के अवशेष का जिक्र करते हैं; मधुबनी जिला में परगना हाटी और परगना जरैल में राजा कठेश्‍वरी के गढ़ों के अवषेष राजा गन्ध की गढ़ी का अवषेष प. हाटी में; राजा भर की गढ़ी के अवशेष प. चखनी में; एवं परगना हावी में दुसाध राजा के गढ़ का खण्डहर।27 1933 ई. में प्रकाशित भागलपुर दर्पण (हिन्दी में) में लेखक झारखण्डी झा अपनें फील्ड सर्वे के दौरान प्राप्त सूचनाओं के आधार पर इस जिले में गंगा के उत्‍तर खासकर खेतौरी, कैवर्त और भर राजाओं/प्रधानों के दुर्गों, महलों और मन्दिरों के अवषेष का जिक्र करते हैं और मौखिक परम्परा की चर्चा करते हैं जिसके अनुसार खेतौरी राजाओं से पहले दक्षिण भागलपुर में नट और दुसाध राजाओं का षासन था।28 भर राजा के साथ खण्डवला राज संस्थापक म.म. महेश ठाकुर के बालक अच्चुत ठाकुर के (16वीं सदी में) संघर्ष एवं भर राज-परिवार के उन्मूलन के प्रसंग म.म. परमेश्‍वर झा लिखित मिथिला तत्‍व विमर्ष में एक विवरण है।29 मिथिला के इतिहासकारों के लिये यह एक आवश्‍यक विषय है कि ऐसे राजाओं/प्रधानों के षासन की उत्पत्ति, उसकी व्यवस्था, उसकी प्रतिष्ठा, समाज के विभिन्न् वर्गों के बीच सम्बन्ध, उत्पादन, पेशाओं, इत्यादि के प्रसंग विस्तार से शोध करें। मैं यहाँ मात्र इसे समाज में 13वीं-14वीं-15वीं सदी में उभरते उदारवाद की प्रवृति के प्रमुख उदाहरण के रूप में विवेचना कर रहा हूँ। पहले जो जाति-वर्ण आधारित राजा होने की, याने, राजसत्‍ता की परम्परा थी उससे राजनीतिक क्षेत्र को किसी न किसी हद तक स्वतंत्रता मिली।
फिर 14वीं-15वीं सदी में विद्यापति प्रेम के (राधा-कृष्ण के प्रेम के) गीत गाये, मैथिली में यह स्थापित करते हुए कि देसिल बयना सब जन मिठठा। ”देसिल बयना“ में बहुत पहले से ही रचनाएँ हो रही थी, जैसे पाली में बौद्ध ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी, ज्ञानेश्‍वरी की रचना मराठी में हो चुकी थी। लेकिन, कभी, किसी ने ”सब जन मिठठा“ की सैद्धान्तिक गुणवत्‍ता जाहिर नहीं की थी - प्रायः सोशियो-लिंग्विस्टिक्स की यह प्रथम अवधारणा देने बाले विद्यापति थे, जिन्होनें ”सब जन“ के रूचि की बात किये - उसे सिद्धान्त के रूप में स्थापित किये, ”सब जन“ को, लोक को, साहित्य की परिधि मे लाये। विद्यापति लोक पक्ष की ओर झुके थे। इनसे पूर्व 14वीं सदी के पूर्वार्ध में ज्योतिरीश्‍वर ठाकुर द्वारा वर्णरत्नाकर की रचना हो चुकी थी - मैथिली गद्य में, जिसका महत्‍व इतिहास, समाजशास्त्र और मानव विज्ञान के लिये बहुत ही विषिष्ट है - सोशल सर्वे की यह प्रथम कृति है पूरे भारत में (इस प्रसंग मैं अन्यत्र विवेचना कर चुका हूँ।) मिथिला में भी अन्य (कुछ) क्षेत्रों की तरह लोक भाषा/बोली बुद्धिजीवियों के चिन्तन का माध्यम प्रायः सशक्त रूप से बन चुका था। इसके चलते शायद लोक भाषा/बोली और देव या बौद्धिक चिन्तन की भाषा संस्कृत के पक्षधरों के बीच द्वन्द्व शुरू हुआ। नामवर सिंह, पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, इरफान हबीब, तथा जॉन इरविन के 1946 ई. के लेख ”द क्लास स्ट्रगल इन इंडियन हिस्टरी एण्ड कल्चर“ (द माडर्न क्वाटर्ली, जिल्द 1, सं. 2, लंदन) के आधार पर मानते हैं कि मध्य युग में ब्राह्मणिक/वैदिक और लोक मत की बीच संघर्ष या द्वन्द्व बहुत प्रखर हो गया।30 पुराणों में वर्णित ब्राह्मण और शूदª के लंबे संघर्ष, जिसके बारे में रामशरण शर्मा अपने एक लेख (”द कलि एज, ए पिरियड ऑफ सोशल क्राइसिस“, अर्ली मेडिएवल इंडियन सोशाईटी, कोलकाताः ओरियन्ट लाँगमैन, 2001, पृ. 51) में उल्लेख किये हैं, शायद इस द्वन्द्व को तीब्रता प्रदान किये होंगे। इसी संघर्ष के दौरान संस्कृत विरोधी स्वर (ज्ञानेश्‍वरी की रचना प्रसंग महाराष्ट्र में) और भाषा विरोधी स्वर (तुलसीदास के भाषा में लिखे रामायण प्रसंग जो मूलतः मौखिक परम्परा में है) उभरे। ऐसे स्वरों में किसी भाषा या विद्या के विरोध की बात नहीं की जा सकती - बात थी भाषा या विद्या के किसी एक वर्ग में सीमित रहने से उस आधार पर उस वर्ग का समाज में अपने हित में वर्चस्व बनाये रखने के प्रयास और उस वर्चस्व का दूसरे वर्ग द्वारा विरोध/संघर्ष। इस संघर्ष को कहा गया कहीं संस्कृत विरोधी और कहीं भाषा विरोधी - लेकिन उसका अर्थ ऐसे वाक्यों से नहीं बल्कि उसमें निहित संदर्भ (वर्चस्व की राजनीति) से सही होता है। वाक्य और उसके सही अर्थ निरूपण के प्रसंग विद्यापति अपने पुरूष परीक्षा में (”शास्त्रविद्य कथा“ में) बहुत सहज रूप से स्पष्ट किये हैं।31 यह संघर्ष नौलेज और पावर के संबन्ध के तहत था। नौलेज और पावर के संबन्धों का इतिहास हमारे यहाँ अपर्याप्त है जिस पर षोध अपेक्षित है और जिससे इस प्रसंग द्वन्द्वों और संघर्षों की सही विवेचना हो सकती है। नामवर सिंह जिसे लोकमत कहते हैं वह लोकायत है। इसकी परम्परा वैदिक युग से घटती-बढ़ती रही, जिसे देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय और अन्य कई विद्वान वैदिक परम्परा के समानान्तर मानते हैं, जिसमें जाति-वर्ण विचार का कोई स्थान नहीं रहा, स्त्री-पुरूष के भेद भी नहीं रहे, सारे तंत्र परम्पराएँ एवं अन्य, (खासकर जाति-वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध) जितने सेक्ट्स और कल्ट्स थे, सब प्रायः इसी लोकायत परम्परा के तहत आते हैं।32 तंत्र मार्गों का विकास विशाल जन-समूह के बीच फैल रहा था और बुद्धिज्म भी उसमें प्रवेश पाकर जन-समुदायों में पहुँच गया और फिर नाथ सम्प्रदाय के 8वीं-9वीं सदी से जो विकास हुआ उसमें 14वीं सदी के पहले तक करीब 125 सिद्धों के नाम मिलते हैं जिनमें कई महिलाएँ हैं जो खासकर जिन्हें हम आज दलित समूह मानते हैं उसी जाति समूह के (द्विवेदी, हजारी प्रसाद, 1918 नाथ सम्प्रदाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली पौ.6, नई दिल्ली: राजकमल: 48), तीसरी-चैथी सदी (ई.पू.) में जब उच्च वर्ण के महिलाओं को भी वैदिक परम्परा में भागीदारी से हटा दिया गया तो वे भी कालक्रम से तांत्रिक परम्पराओं को अपनाते गये। 14वीं-15वीं सदी तक आते-आते विभिन्न् धार्मिक मतों का संघर्ष (जो हिंसा पूर्ण नहीं थे) बहुत प्रखर हो गया। साथ ही, 13वीं-14वीं सदी तक सब लोग अपनें को ”हिन्दू“ कहने लगे, ‘हिन्दू‘ अस्मिता अपनाये, और पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार पहली बार विभिन्न् धार्मिक मतों के मानने बाले (बुद्धिज्म, जैनिज्म और इस्लाम को छोड़कर) एक कॉमन ‘हिन्दू‘ अस्मिता से बन्ध गये - इतना बड़ा जन समूह का आधार उससे पहले किसी एक, वैदिक या लोकायत परम्परा को भी नहीं मिला था।33 हिन्दुइज्म के आविर्भाव प्रसंग मैं ने अन्यत्र विस्तार से विवेचना किया है,34 इसलिये यहाँ ज्यादे समय नहीं लूंगा। सिर्फ इतना व्यक्त करना आवश्‍यक है कि विद्यापति (हिन्दू) धर्म की व्याख्या जाति-वर्ण से ऊपर उठकर किये और उस व्यक्ति परक किये-हर व्यक्ति अपने कुल की परम्परा का निर्वाह यथा साध्य करे और समाज में साधारण धर्म अर्थात् हिंसा न करे, किसी के धन और स्त्री से कोई मतलब न रखे।
विद्यापति के बाद नानक, कबीर, चैतन्य, सब सिद्धान्ततः इसी भावना के अनुसार वर्ण-जाति के विरूद्ध विचारों के प्रसार के लिये जाने जाते रहे हैं। उदारवादी प्रवृतियों को इस तरह बल मिलता रहा जो उच्च वर्णों के अतिरिक्त विशाल जन समूह में फैलता गया।
मिथिला में कबीर पन्थ के इतिहास का गहन अध्ययन पुर्णेन्दु रंजन ने किया है और इन्होंने दिखलाया है कि कैसे 17वीं सदी से इस पन्थ को उच्च वर्णों को छोड़कर अन्य निम्न और दलित वर्गों के जन समूह अपने विचार धारा के रूप में स्वीकार करता गया।35 फ्रान्सिस बुकानन के पुर्णियाँ और भागलपुर के रिपोर्ट्स (19वीं सदी के आरम्भ काल) में कबीर पन्थ, नानक शाही, इत्यादि के माननें वालों की विषाल जनसंख्या (निम्न वर्गों की) का विवरण मिलता है। 19वीं सदी के उतरार्ध में रियाज-ए-तिरहुत (1867) और आईना-ए-तिरहुत (1883) के मोताबिक दरभंगा शहर में प्रसिद्ध नानक शाही मठ था। अन्य कई स्थलों पर भी इनके मठ थे। ये जन समूह गाँवों में अपने मुसलमान पड़ोसियों के साथ हिल-मिलकर रहते थे, सब, सबों के त्यौहार में भाग लेते थे। महिलाओं के बीच, उच्च वर्ण की महिलाएँ भी लोकायत के तहत विभिन्न् तंत्र परम्पराओं को सदियों से अन्य वर्णों/जातियों के महिलाओं साथ एक कॉमन आईडियोलोजी का निर्वाह करती रही, जिसके चलते उनके बीच आपस में ज्यादे जातिगत भेद-भाव नहीं रहे। आज भी अगर आप किसी उच्च वर्ण के घर के भीतर जाय तो देख सकते हैं कि उनके घर की महिलाएँ अन्य महिलाओं के साथ एक ही स्थान पर बिना किसी विशेष दूरी के अन्तरंग बातें करती हैं। 19वीं सदी के अन्तिम दशक में प्रकाशित यही दरभंगा के भुवनेश्‍वर मिश्र लिखित बलवन्त भूमिहार पढ़ने से यह और भी स्पष्ट हो जाता है। महिलाओं में विभिन्न् तांत्रिक परम्परा का ज्ञान पुश्‍त-दर-पुश्‍त मौखिक परम्परा पर आधारित रहा, तांत्रिक यंत्रों पर आधारित ‘अरिपन‘ का ज्ञान भी उन्हीं के बीच रहा-उसी से ज्यादा प्रभावित मिथिला पेंटिंग का सृजन महिलाओं तक ही सीमित था - पुरूष वर्ग में इस प्रसंग कोई ज्ञान नहीं था - अब तो बाजार बढ़नें से सभी इस ओर आकर्षित हैं। बहुत सारे लोकगीत महिलाओं के बीच ही रहे जिसे सभी वर्ण की महिलाएँ साथ-साथ विभिन्न् अवसरों पर गाते रहे।
तात्पर्य यह है कि उदारवादी विचार लोकायत के अन्तर्गत विषाल जन समूह जो मुख्यतः निम्न वर्णों और दलित जाति समूह के थे उनके बीच बहुत हद तक फलता-फूलता गया। इस प्रसंग बहुत छानबीन और खोज की आवश्‍यकता है निश्चित तौर पर कुछ कहने की; फिर भी मैंने यथा साध्य इस प्रसंग जो ट्रेन्ड्स दृष्टिगोचर रहे हैं, उनका उल्लेख किया है। इसके विपरीत, मिथिला में खासकर, उच्च वर्णों में, विशेषकर ब्राह्मणों में, संकीर्ण भावना पनपती रही।
पहले मैं जिक्र कर चुका हूँ कि के.पी. जायसवाल के अनुसार 11वीं सदी के बाद से धर्मशास्त्रीय पक्ष प्रबल होता गया। बुद्धिजीवी वर्ग जो वैदिक परम्परा के मुख्य पक्षधर थे, उन्होंने 13वीं-14वीं सदी तक विद्याओं को ऊध्र्वाधर वर्गीकरण कर दिया। समस्तरीय वर्गीकरण तो प्राचीन काल से चला आ रहा था, लेकिन उसमें किसी का मुख्य या गौण होने की बात नहीं थी। भारतीय परम्परा में विद्याओं के वर्टीकल वर्गीकरण के उभरने के कारण, कन्डीशन्स और परिणाम के प्रसंग मैं ने अन्यत्र अपने एक लेख (भरतीय परम्परा में ज्ञान का मूल्य अनुक्रमश्, आलोचना अंक - 39, अक्टूवर-दिसम्बर 2010: 40-44 ) में विचार किया है। यहाँ सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि कृषि एवं अन्य सेकुलर वृतियों की विद्याओं को गौण स्थान दिया गया और धर्मशास्त्र से संबन्धित विद्याओं को बहुत ही प्रमुख माना गया। म.म. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी मध्य युग के एक प्रचलित संस्कृत कहाबत का जिक्र करते हैं; ”शस्त्रेषु नष्टाः कवयो भवन्ति, काव्येषु नष्टाष्च पुराण पथाः, तत्रापि नष्टाः कृषिमाश्रयन्ते; नष्टाः कृष्टेर्भागवत भवन्ति“; अर्थात्, शास्त्रों (न्याय, धर्मशास्त्र, इत्यादि) का अध्ययन सर्वोपरि था, इससे गौण था काव्य शास्त्र, जिससे गौण था पुराण-प्रवचन; जो यह भी नहीं कर सकते उनके लिये था कृषि कार्य; और, जो कुछ भी नहीं कर सकते वे साधू भेष धारण कर घूमते थे।36 ध्यान देने की बात है कि कृषि पर ही पूरा समाज टिका था - बुद्धिजीवी वर्ग भी उसी पर अपने जीवन निर्वाह करते थे, परन्तु इस विद्या को ही गौण बना दिया गया। मेरा अनुमान है कि समाज इस तरह अन्दर से कमजोर होता गया - उत्पादन पर असर पड़ा होगा; उत्पादन से जुड़े वर्गों के सम्बन्ध भी प्रभावित हुए होंगे। प्राचीन काल में ऐसी बात नहीं थी - सभी वर्ग के लोग कृषि कार्य में भाग लेते थे - जनक के हल चलाने (सीता जन्म प्रसंग) का जो लिजेन्ड है वह ऐतिहासिक दृष्टि से सत्यता की झलक देता है; कृषि विद्या का स्थान अन्य विद्याओं के समान ही था। मगर मध्य युग आते-आते ब्राह्मणों ने हल छूना भी पाप मान लिया - कृषि विद्या उपेक्षित हो गई। कृषि पराशर (प्रायः दसवीं सदी) के बाद कोई पुस्तक नहीं लिखी गई। एक पोथी उपवन विनोद (संस्कृत में) का प्रकाषन कामेश्‍वर सिंह द. संस्कृत विश्‍वविद्यालय द्वारा 1984 ई. में हुई, लेकिन इसके लेखक और उनके काल के विषय में कोई सूचना नहीं है।
शास्त्रों में भी जो महत्वपूर्ण माने गये उनमें न्याय या नव्यन्याय का स्थान सर्वोपरि हो गया। के.पी. जायसवाल के अनुसार, पहले कहा गया, (कि) मौलिक चिन्तन का ह्रास 11वीं-12वीं सदी से प्रारम्भ हो चुका था - मिथिला में यह कुछ देर से हुआ। भारतीय दर्शन की अन्तिम मौलिक कृति तत्‍व चिन्तामणि, दिनेष चन्दª भट्टाचार्य के अनुसार 14वीं सदी के गंगेश उपाध्याय का है - जिससे कालक्रम में मिथिला ही नहीं, पूरा देश का बौद्धिक जगत आन्दोलित हो गया। लेकिन, उसके बाद टीकाकारों का युग आया - पांडित्यपूर्ण टीके लिखे गये। भट्टाचार्य के अनुसार गुरू-शिष्य के बीच लिखित बाद-विवाद की परम्परा प्रारम्भ हुई जिससे बहुत ही महत्वपूर्ण, स्वस्थ और ऐक्टिव इन्टेलेक्चुअल माहौल का सृजन हुआ, लेकिन, 17वीं सदी तक आते-आते यह परम्परा विलीन हो गई जिससे मिथिला की बौद्धिक गरिमा करीब-करीब समाप्त ही हो गई।37 बाद में ऐसे पंडितों की संख्या घटती ही गई। म.म. गंगानाथ झा के अनुसार 19वीं सदी के अन्त तक आते-आते जिस मिथिला में पहले कभी 100 मीमांसक थे अब मात्र तीन ही बच गये थे।38 शेल्डन पोलक संस्कृत साहित्य के इतिहास का अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान हैं, इनके अनुसार 17वीं सदी के पंडितराज जगन्नाथ के बाद साहित्यिक चिन्तन (संस्कृत में खासकर) पूरे भारत में बहुत ही शिथिल हो गया।39 मैं इस प्रसंग ज्यादे समय नहीं लूंगा। आप अन्य विद्याओं के इतिहास की ओर झाँकेंगे तो यही पायेंगे कि मौलिक चिन्तन क्रिया मन्द होती गई सभी शास्त्रों में - बौद्धिक जगत ह्रास की ओर बढ़ता गया। संकीर्ण भावना के उदय होने से समाज में चली आ रही बौद्धिक परम्परा भी 14वीं-15वीं सदी के बाद क्रमषः कमजोर (ह्रासोन्मुख) होती गई।
अब, जरा समाज की ओर देखें। रमानाथ झा अपने द्वारा संपादित पुरूष-परीक्षा के इन्ट्रोडशन में लिखते हैं कि इस्लाम के अनुयायियों के आक्रमण एवं प्रभुता को देखते हुए अपने पारंपरिक स्वत्‍व और एक्झिस्टेंस को अक्षुण रखने हेतु मिथिला के 13वीं-14वीं सदी के पंडित वर्ग जन्म, संस्कार, विद्या, आदि को ध्यान में रख कर निबन्धों की रचना करने लगे।40 जन्म शुद्धता जाति शुद्धता पर आधारित थी - इसलिये 14वीं सदी के प्रारंभिक काल में वंशावलियों के पंजी प्रबन्ध का आयोजन हुआ। मैं यहाँ पंजी प्रबन्ध का विशेष विवरण नहीं दे सकता - मात्र इससे प्रभावित सामाजिक ट्रेन्ड्स की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। रमानाथ झा प्रायः मेरी दृष्टि से पहले और अन्तिम आधुनिक विद्वान थे जो करीब 15 वर्षों तक प्रख्यात पंजीकार मोदानन्द झा से पंजी पुस्तकों का, पंजी के भाषा का अध्ययन किये, और जिन्हें पंजीकारों द्वारा मान्यता भी मिली। पंजी प्रसंग इन्हीं के लेखों के आधार पर यहाँ कुछ बातें कह रहा हूँ।
इस प्रसंग पहली बात तो यह प्रतीत होता है कि जिस मिथिला में पहले विद्या और व्यक्तित्व ही सबसे बड़ा मूल्य था, 14वीं-15वीं सदी के बाद धीरे-धीरे जाति भी उसके साथ जुड़ती गई, यों कहिये कि हावी होती गई। गंगेश, वर्धमान, अयाची, इत्यादि के परिचय में उस समय के लेखों में मैथिल अस्मिता का उल्लेख तो है, लेकिन मैथिल ब्राह्मण के अन्दर की जाति-भावना की बात नहीं है। लेकिन 17वीं सदी से प्रारम्भ होते-होते 18वीं सदी तक आकर मैथिल ब्राह्मणों के अन्तर्गत श्रोत्रिय, योग्य, पंजीवद्ध एवं जयवार वर्गों का वर्टिकल वर्गीकरण सुनिश्चित हो गया।41 श्रोत्रिय पहले भी थे, लेकिन वे व्यक्ति विशेष हुआ करते थे - कोई जाति या वर्ग नहीं, अब जातीय आधार पर भेद-भाव, जैसे, विवाह, खान-पान, इत्यादि में बढ़ने लगा। जाति से विशुद्धता की डिग्री जुड़ी थी (धर्मशास्त्रीय आधार पर) और धीरे-धीरे मिथिला या मैथिल होने की अस्मिता का पंजी ही मुख्य स्तम्भ या आधार हो गया - रमानाथ झा के अनुसार।42 चूँकि मिथिला के कर्ण कायस्थों में भी पंजी व्यवस्था प्रारम्भ से रही इसलिये उन्हें भी मैथिल अस्मिता में जगह मिली, अन्य सभी वर्ग इस आइडिन्टिटी से वंचित हो गये। पंजी व्यवस्था से कर्ण कायस्थ समाज भी 8 श्रेणियों में बँट गये।43 इस तरह ब्राह्मणों और कायस्थों के समाजों का भीतर से ख्ण्ड-पखण्ड हो गया - सामुहिक कम्युनिटी की भावना षिथिल होती गई - अपने-अपने श्रेणी की महत्‍व, अहंकार ही सर्वोपरि हो गया। मिथिला की प्राचीन काल से चली आ रही सारी सांस्कृतिक-बौद्धिक पूंजी इसके समक्ष मानो नतमस्तक हो गई। यहाँ यह कहना आवश्‍यक है कि पंजी-पुस्तकों का महत्व मिथिला के इतिहास के लिये बहुत ही महत्‍वपूर्ण है, उसमे दिये गये व्यौरे हमारे लिये असन्दिग्ध मूल्य के श्रोत हैं। मैं तो सिर्फ उसका जैसा उपयोग या दुरूपयोग हुआ, उसी का कुछ विवरण दिया है। समाज में इन्टर पर्सनल और इन्टर ग्रुप इन्टरऐक्षन्स में धार्मिक विशुद्धता के आधार पर विभिन्न् वर्टिकल श्रेणियों का प्रभाव तो प्रायः अवश्‍य ही पड़ा - जिसके साक्ष्य विभिन्न् उपन्यासों एवं कथाओं में भी मिल सकता है। बिकौआ जैसी वीभत्स प्रथा 19वीं सदी में किस तरह जाति, कुल, श्रेणी के मर्यादित मूल्यों से फली-फूली सब जानते हैं। क्षणिक स्वार्थ पूर्ति, बिना उद्यम किये सुखों की आकांक्षा, कुल और श्रेणी को ही (विद्या और व्यक्तित्व नहीं रहनें पर भी) बड़प्पन का आयाम मानना, पाखंड का बोलबाला, इत्यादि, आप उस समय के प्रचलित षब्दों, कहाबतों में ढूँढ़ सकते हैं।
इतना ही नहीं - भौगोलिक क्षेत्रों की भी वर्टिकल श्रेणियाँ हो गई। पंचकोसी की अवधारणा आ गई। 1915 ई. में रास बिहारी लाल दास अपनी पुस्तक मिथिला दर्पण में इस प्रसंग लिखते हैं कि अब ”केवल दरभंगा जिला ही मिथिला का बोधक हैं, उसमें भी मधुबनी सबडिविजनान्तर्गत थाना मधुबनी, खजौली तथा बेनीपट्टी ही मिथिला का परिचय विशेष रूप से देते हैं, इस समय मिथिला का केन्दª मधुबनी माना जाता है“।44 अन्य सभी इलाके गौण हो गये, प्रायः भदेस माने जाने लगे।
जो लोग गंगा नदी के तरफ बसे वे दछिनाहा कहे जाने लगे। इस प्रसंग उल्लेखनीय है कि 1972 ई. में प्रकाशित बड़हिया गाँव (गंगा के दक्षिण तट स्थित) का ऐतिहासिक अध्ययन, मेरा गाँव, मेरे लोग के लेखक विश्‍वनाथ सिंह पृ. 21 पर लिखते हैं कि बड़हिया के पुरानें भूमिहार ब्राह्मण परिवार सब दिघवै मूल के शांडिल्य गोत्रीय मैथिल ब्राह्मणों के सन्तान हैं। हाल में बिहट (बरौनी) के चन्दª प्रकाष नारायण सिंह का संस्मरण (घर-आंगन और गाँव, पटना, ए. एम. एस. पब्लिकेशन्स) 2010 में प्रकाश में आया। इसमें उन्होंने अपनी वंशावली दिया है (पृ.186-पृ.208), जिसके अनुसार ये वत्स गोत्रके जलैवार मूल के हैं, इनके पूर्वज राको ठाकुर 16वीं-17वीं सदी में जाले से आकर गंगा के निकट बस गये। इसी तरह से बेलौंचे और अन्य मूल के मैथिल ब्राह्मण परिवार इस तरफ बसते गये - जिनमें बहुत तो भूमिहार ब्राह्मण की अस्मिता ले लिये और जो रह गये - मुंगेर, भागलपुर तक वे ”दछिनाहा“ याने निम्न श्रेणी के मैथिल ब्राह्मण माने जाने लगे। इतिहासकारों के लिये यह एक चुनौती है कि वे अस्मिता के बदलनें की परिक्रिया, कारण और कन्डीशन्स का शोध करें - कैसे मैथिल ब्राह्मण के कुछ परिवार भूमिहार ब्राह्मण बन गये।
मुख्य रूप से इस विवेचना द्वारा मैं यही मानता हूँ कि मिथिला में 14वीं-15वीं सदी के बाद उच्च जातियों - खासकर ब्राह्मण वर्ग में संकीर्णता की भावना बढ़ती रही जिसके फलस्वरूप यह वर्ग जो बहुत ही महत्‍वपूर्ण वर्ग रहा - ह्रासोन्मुख होता गया। मौलिक चिन्तन षिथिल होती गई, अन्दर से खण्ड-पखण्ड होता गया, जातीय विषुद्धता, क्षेत्रीय विशुद्धता सांस्कृतिक एवं बौद्धिक विरासत और चेतना पर हावी होती गई, क्रियेटिव पोटेन्शियल बहुत ही कमजोर होता गया।
इसके विपरीत समाज के अन्य निम्न वर्गों में उदारवादी विचार धारा का प्रभाव बढ़ता गया - ज्यादे से ज्यादे लोग इस ओर झुकते गये -मिथिला का समाज इन दो विपरीत धाराओं से ग्रसित हो गया, जिसके चलते एलिट और मासेज में विरोधात्मक संबन्ध बनते गये। अन्यत्र, मैंने अपने लेख ”एलिट-मास कन्ट्रैडिशन इन मिथिला इन हिस्टोरिकल पर्सपेक्टिव“ (सच्चिदानन्द एवं लाल, ए.के. सं.1980 एलिट एण्ड डेवलपमेंट, नई दिल्ली; कन्‍शेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी, 187-206) में इन संबन्धों के बारे में लिखा है। परन्तु, ये सारी बातें खास प्रवृतियों के बारे में इशारा करते हैं। काल खण्ड (14वीं-15वीं सदी और उसके बाद) काफी लम्बा है; सामग्रियाँ छितरी हुई हैं - आवश्‍यकता है कि गम्भीर रूप से बहुत से इतिहासकार समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन्टेन्सिवली शोध करें और अपने अध्ययन से सुनिश्चित तथ्यों को प्रकाश में लावें।
आप के मन में यह प्रश्‍न उठ रहा होगा कि क्या मिथिला के इतिहास में विकास के कोई लक्षण 14वीं-15वीं सदी के बाद नहीं हैं, ऐसी बात नहीं है - ह्रास कितना भी तीब्र हो विकास किसी न किसी डिग्री में समाज के किसी न किसी सेक्टर में कुछ तो होगा ही। प्रश्‍न उठता है कौन से ट्रेन्ड (ह्रास का या विकास का) ज्यादे मुखर या सशक्त एवं दृष्टिगोचर रहा है, दूसरी बात है कि हम किसे विकास कहते हैं और किसे ह्रास, विकास प्रसंग बहुत विद्वान (दुनियाँ भर के) चिन्तन में लगे हैं - उनकी बातें आप तक पहुँच रही है। ह्रास की प्रवृति को मैंने संकुचित होने की प्रवृति मानता हूँ जो उदारवादी दृष्टि के विपरीत है। संकुचित होनें की प्रवृति से मानववादी मूल्यों की उपेक्षा होती है, छुदª स्वार्थ पूर्ति की मानसिकता प्रबल होती है, अल्पकालिक सोच (दूरगामी दृष्टि के विपरीत) प्रभावकारी हो जाता है, अपनें वर्ग/जाति की सीमा ही चिन्तन का क्षितिज रह जाता है, इत्यादि। फिर, आप सोच सकते हैं कि आज जब विकास की बातें हो रही हैं, विकास के मन्त्रों की तलाश हो रही है, तब क्या उचित है कि इतिहासकार वर्ग ह्रास पर शोध करें - इसी प्रसंग अपनी सारी शक्ति लगा दें, प्रश्‍न बहुत ही उचित है - इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन, इस प्रसंग मैं उल्लेख करना चाहता हूँ जेनेट अबू-लुगहोड जैसे इतिहासकार के विचार। वैल्लस्र्टाइन ने 1974 ई. से वल्र्ड सिस्टम के विकास के प्रसंग अपना प्रोजेक्ट शुरू किये। इनके अध्ययनों से आप पूर्व परिचित हैं। इनके अतिरिक्त, वल्र्ड सिस्टम पर जेनेट अबू-लुगहोड की 1989 ई. में बिफोर यूरोपियन हेजिमोनी, द वल्र्ड सिस्टम ए.डी. 1250-1350, (ऑक्सफोर्ड यु. प्रेस, न्यूयोर्क) प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने मध्य युग में वल्र्ड सिस्टम ट्रेडिंग जोन जो चीन से शुरू होकर इंडोनेशिया, भारत, अरब वल्र्ड से होते हुए यूरोपियन क्षेत्र तक फैली थी के इतिहास की विवेचना किये। इस अध्ययन के दौरान वे एक बहुत ही महत्वपूर्ण इस्सू उठाये कि पश्चिम के विकास क्रम पर शोध करने से ज्यादा महत्‍वपूर्ण और उपयुक्त है पूर्व के ह्रास पर शोध करना। रैन्डल कॉलिन्स जैसे समाजशास्त्री भी इसे अहम मानते हैं।45 विकास के लिये स्ट्रैटजी का चिंतन तब तक उचित एवं प्रभावकारी नहीं हो सकते जब तक हम ह्रास के लक्षणों, प्रवृतियों, समाज में उसके उत्पत्ति और प्रभाव के कारणों को नहीं जान लेते हैं। ह्रासोन्मुखी प्रवृतियों पर बिना काबू पाये बिना विकास की सारी योजना निरर्थक हो जाती हैं। मैं याद दिला दूं कि 1950 के दशक में किन स्वप्नों के साथ कम्यूनिटी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट प्रारम्भ हुए थे। लेकिन आप सब जानते हैं कि 20 वर्षों के अन्दर ही उसका क्या हश्र हुआ। ह्रासोन्मुखी प्रवृति पर काबू पाने के लिये उन्हें जानना होगा, विश्‍लेषण करना होगा, उसके जड़ों तक पहुँचना होगा - और यह काम सिर्फ इतिहासकार कर सकते हैं। मेरी दृष्टि से यह बहुत ही उचित और तर्क संगत है। मैं मानता हूँ कि आपके ह्रास प्रसंग शोध से ही विकास यात्रा को सही दिषा मिलेगी।




पद टिप्पणियाँ
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’’’’’’’’’’’’’लेखक पटना विश्‍वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अवकाश प्राप्‍त प्रोफेसर हैं।

1 comment:

Word to Science said...

your post is very very false and like as a cat says,,,चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं
शेर हम भी हैं, सर्कस में काम करते हैं। anyways,,as i know मैथिल ब्राह्मण ls son of giant (raban) ...but,,i don't know more about BHUMIHAR,,, but a/history they are followed parsuram and their reputation is good in compare to मैथिल ब्राह्मण !!