इसमाद

Friday, August 20, 2010

मुश्किल में नीतीश

हिमकर श्याम
परिस्थितियां कभी एक समान नहीं रहतीं। समय के साथ परिस्थितियां बदलती रहती हैं। वर्तमान परिस्थितियां नीतीश कुमार के अनुकूल नजर नहीं आ रहीं। नीतीश कुमार लगातार घिरते जा रहे हैं। चुनाव के ठीक पहले बदलती परिस्थितियांे ने नीतीश को मुश्किल में डाल दिया है। राज्य में एक के बाद एक उजागर होतीं वित्तीय अनियमितता और प्रबंधन की खामियां नीतीश के सुशासन की पोल खोलने लगी हैं। नीतीश के फैसले भी उनके खिलाफ नजर आने लगे हैं। परिस्थितियों ने तेजतर्रार राजनीतिज्ञ और कुशल प्रबंधक नीतीश को कटघरे में खड़ा कर दिया है, वहीं विपक्षी दलों को बैठे बिठाए सत्ता पक्ष पर हमले का हथियार भी मिल रहा है। नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। एक कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ वह सोशल इंजीनियरिंग भी बखूबी जानते हैं। उन्हें यह आभास है कि बिहार में यदि राजनीति करनी है तो सिर्फ विकास से काम नहीं चलेगा। इसके लिए वोट बैंक की बाजीगरी भी आनी चाहिए। नीतीश कुमार ने विकास और सामाजिक न्याय को शासन का मूलमंत्र बनाया। उन्होंने विकास योजनाओं में वोट बैंक का भी ध्यान रखा। चाहे वह अत्यंत पिछड़ी जाति हो, महादलित हो, पसमांदा मुसलमान हो, सबको विकास में भागीदार बनाने की कोशिश की। विशेष कल्याण नीतियों के जरिए मुसलिमों के बीच अपना एक विशेष स्थान बनाया। नीतीश विकास और वोट में अद्भुत संतुलन बैठा कर बढ़ते रहे। साढ़े चार वर्र्षाें तक इस संतुलन पर कायम रहे। राज्य में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी शुरू होते ही नीतीश का संतुलन बिगड़ने लगा है। नीतीश ऐसे-ऐसे फैसले लेने लगे हैं, जो उनके स्वभाव से मेल नहीं खाते। अपराध मुक्त बिहार का दावा करनेवाले मुख्यमंत्री ने आपराधिक छविवाले नेताओं को तरजीह देने लगे हैं। आपराधिक छविवाले तस्लीमुद्दीन को जदयू में शामिल कर विपक्ष के साथ-साथ अपनी सहयोगी भाजपा को भी हैरान कर दिया। सीमांचल के कई सीटों पर इससे भाजपा को नुकसान हो सकता है। किशनगंज में अलीगढ़ मुसलिम यूनिवसिर्टी की शाखा खोलने के फैसले से भाजपा पहले ही परेशान थी। तस्लीमुद्दीन को पार्टी में शामिल करने के बाद आनंद मोहन को जदयू में लाने की तैयारी चल रही है। नीतीश प्रभुनाथ सिंह के विकल्प के रूप में आनंद मोहन को देख रहे हैं। आनंद मोहन कोसी इलाके के चर्चित बाहुबली नेता हैं। उनपर कई आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं। गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया हत्याकांड मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। बाहुबलियों के प्रति अचानक पैदा हुए मोह ने सबको हैरान कर दिया है।
नीतीश के संतुलन बिगड़ने का सिलसिला एक विज्ञापन में नरेंद्र मोदी के साथ छपी तस्वीर छपने के बाद शुरू हुुआ। नीतीश ने बिना सोचे कोसी बाढ़ पीड़ितों के लिए गुजरात सरकार द्वारा दी गयी पांच करोड़ की राशि वापस लौटा दी। उनके इस फैसले पर विपक्ष और बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के लोगों ने जमकर विरोध जताया। यह वह राशि थी जो खर्च नहीं की जा सकी थी, जबकि उस इलाके के बाढ़ पीड़ित राहत के इंतिजार में आज भी बैठे हैं। खुद नीतीश केंद्र पर बाढ़ राहत के नाम पैसा न देने का आरोप मढ़ते रहे हैं। इतना ही नहीं नीतीश ने भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी और वरूण गांधी को आनेवाले चुनाव में प्रचार कार्यों से दूर रखने की घोषणा कर भाजपा में खलबली मचा दी।
इसी बीच ट्रेजरी बिल में गड़बड़ी का मामला सामने आया। नीतीश सरकार पर विकास कार्यों के लिए निकाली गयी राशि में अनियमितता के गंभीर आरोप लगे। मनरेगा और मिड डे मिल जैसी विकास योजनाओं के लिए निकाली गयी राशि का सही लेखा जोखा उपलब्ध न होना संदेह पैदा करता है। मामला हिसाब-किताब में गड़बड़ी का है, जो सरकारी खजाने से निकाली जानेवाली आकस्मिक राशि और उसके खर्च के विवरण से जुड़़ा है। सीएजी ने अपने रिपोर्ट में कहा कि सरकारी खजाने से निकाली गयी राशि के खर्च के जरूरी विवरण न होने से बड़ी वित्तीय अनियमितता का संदेह होता है। 11412.54 करोड़ रूपये की यह अनियमित निकासी एक अप्रैल 2002 से लेकर 31 मार्च 2008 के बीच की है। बिल सामंजन अनियमितता के मुद्दे पर सदन में भारी हंगामा और शोरगुल हुआ। सत्ता पक्ष जहां इसे अनदेखी बता रहा है वहीं विपक्ष इसे घोटाला मानकर मामले को तूल देने में लगा हुआ है। इतनी बड़ी राशि का घोटाला हुआ है या नहीं यह तो जांच के बाद पता चलेगा, लेकिन इस मामले ने जनता में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी है। सीएजी ने विकास योजनाओं में वित्तीय अनियमितताओं की ओर कई बार इशारा किया था, लेकिन सरकार आंखें मूंदें बैठी रही। नीतीश ने सीएजी की चेतावनियों को गंभीरता से लिया होता, यह मामला यूं तूल नहीं पकड़ता। साफ तौर पर यह प्रशासन की अक्षमता उजागर करता है। फिलहाल हाइकोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश को स्थगित कर नीतीश को राहत दिया है। लेकिन सुशासन का दंभ भरनेवाले नीतीश कुमार के राज में ऐसी अनियमितता की उम्मीद किसी को नहीं थी।
नीतीश पर तो व्यक्तिगत रूप से आरोप तो नहीं लगे हैं, पर उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। कई आरोपों में दम भी है। सूबे की बेलगाम अफसरशाही पहले भी सुर्खियां में रही है।
भारी भरकम निवेश के बूते बिहार की बदलती तस्वीरों के बीच कुछ ऐसे आंकड़े सामने आये है, जो विकास की हकीकत को नकारते हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर हुआ है कि भारत के आठ राज्यों में सबसे अधिक गरीबी है, जिसमें बिहार भी शामिल है। इन आठ राज्यों में गरीबों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है। इन राज्यों के गरीबों की संख्या अफ्रीका के 26 सबसे गरीब देशों में रहनेवाले लोगों से अधिक है। गरीबी मापने का नया सूचकांक परिवार के स्तर, शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर धन संपत्ति और सेवा के क्षेत्र में अभावों का मूल्यांकन करता है। वहीं बीस सूत्री के आकड़ें भी नीतीश के विकास के दावों को झटका देनेवाले हैं। बीस सूत्री के ताजा आंकड़ों में भी बिहार निचले पायदान पर है। बीस सूत्री की यह रैंकिग कुछ खास योजनाओं में हुए कामों और उसकी उपलब्धि के आधार पर तैयार की गयी है। इसमें स्वर्ण जयंती ग्राम रोजगार योजना, स्वयं सहायता समूह, अंत्योदय अनाज योजना, समेकित बाल विकास योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसे महत्वपूर्ण योजनाएं शामिल हैं। बिहार 30 राज्यों की इस रैकिंग में सबसे नीचे है। इस रैंकिंग में गत वर्ष बिहार 23 वें पायदान पर था।
बिहार में लड़ाई नीतिश बनाम अन्य है। कांग्रेस राज्य में अपनी संभावनाएं तलाशने में जुटी है। वहीं राजद और लोजपा अपने खिसकते जनाधार को वापस पाने की जुगत में है। सूबे में चुनावी बयार के बीच भाजपा और जदयू में आपसी विश्वास और तालमेल का अभाव भी साफ दिख रहा है। बिहार सरकार के विज्ञापनों से भाजपा और उसके नेता पूरी तरह से गायब है। विज्ञापनों में नीतीश ही छाए हुए हैं। चुनावी विशेषज्ञों द्वारा सवर्ण वोट भाजपा के हाथों से खिसकने की बात कही गयी है। बटाईदार विधेयक की चर्चा को इसका मुख्य कारण बताया जा रहा है। सवर्णों से बढ़ती दूरी और नीतीश का बदलता रूख भाजपा की परेशानियांे को बढ़ा रहा है।
बहरहाल, दावों और हकीकत के बीच अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि सूबे में सुधार हुआ है। नीतीश की उपलब्धियां पूर्ववत्ती सरकारों की तुलना में शानदार नजर आती हैं। साढ़े चार वर्षों के कार्यकाल में विकास पुरूष के रूप में नीतीश ने अपनी एक छवि बनायी है। इन वर्षों में विपक्ष के सारे दांवों का वह बड़ी सहजता से सामना करते रहे हैं। अचानक बदली परिस्थितियों का विपक्ष कमर कस कर लाभ उठाने में जुटा हुआ है। विपक्ष को मालूम है कि यदि इस स्थिति का लाभ उठाने में इस बार असफल हुआ तो नीतीश को रोकना निहायत मुश्किल हो जाएगा।

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