इसमाद

Thursday, August 26, 2010

बिहार: मानो आधी लिखी हुई रिपोर्ट

आशीष झा

शाम छहड़ (तटबंध) पर उतर ही चुकी है। दूर-दूर पानी और उसके बीच टापूनुमा झोपडिय़ों में लालटेन, सूने खेत और खेतों के बीच खेतनुमा रास्ते पर हिचकोला खाता गुजरता मेरा रिक्शा। आम के पेड़ के पीले पत्ते बता रहे है कि पिछले दिनों यह पानी में डूबे हुए थे। बिजली के नंगे झुके पोल देखकर यही आभास हो रहा है कि यहां शाम अपनी सामथ्र्य से अधिक अंधेरा उठा लाई है। कितनी अजीब बात है, घरों में पानी, खेतों में पानी, मानो इस इलाके का भाग्य ही पानी में डूब चुका है। व्यवस्था के इस कमीनेपन को भाग्य के खाते में डालने की अपनी चालाकी पर मैं खुद हैरान हो गया। वर्षों से चले आ रहे राहत कार्य भी इस पानी को हटाना नहीं चाह रही है, उल्टे खुद इस पानी में तैरना सीख लिया है। अपने ही घर आए मुझे शायद बहुत दिन हो गए थे, तभी तो जब इस इलाके को समझने, जानने का काम मुझे सौंपा गया, तो मैंने सोचा नहीं था कि यह इलाका इतना बीहड़ दिखेगा। कल्पना से ज्यादा भयानक तस्वीर देख कर मैं हैरान था। साथी के नाम पर मिले, राजीव मिश्र। बीए पास पत्रकार, उम्र मेरे समान ही। लेकिन देखने में अधिक उम्रदराज। कुछ न हो कर भी अधिकारी जैसा रौब, पूरे गांव से परिचित। रिक्शा सीधा उनके दरवाजे पर जा रुका। यहीं पर मुझे ठहराना था। इस इलाके के लोग भी अजीब होते हैं, सुबह हो या रात, हर वक्त हाथ में 'चाह' (चाय) की गिलाश और मुंह में पान। खुद खाते हैं और सामनेवाले को भी मजबूर कर देते है । कहा जाता है पान लौटाना यहां प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। मुंह में पान गई, तो बात आगे बढ़ी, गांव आते वक्त ही मैं जान चुका था कि दो दिनों में यहां की रपट लेना संभव नहीं है, वो भी 'प्रोगे्रस' रपट मेरे मुंह से 'प्रोगे्रस' शब्द सुनकर राजीव के होठों पर मुस्कुराहट तैर गई, बोला-कितनी अजीब बात है, हर दिन हम लोग रिपोर्ट भेजते है। हम से पहले भी रिपोर्ट भेजी जाती रही है। खेतों में फसल बोने व सरकारी कागजों पर अंगूठा लगानेवाले इस इलाके के लोगों के लिए इन रपटों पर कहां कुछ बदला है, कहां हुआ है 'प्रोगे्रस'। मैंने उसे समझाना चाहा कि चार साल हो गए, चुनाव समय नजदीक है, नई व्यवस्था में कुछ तो बदलाव आया होगा, कुछ योजनाएं तो जमीन पर उतरी होंगी, अंधेरे को कहीं तो रोशनी चीरती होगी। राजीव जानता है कि मैं किसी भी हाल में वहीं देखना चाहता हू , जो देखने आया हू। यानी विकास, जो हुआ हो या नहीं, मुझे कैसे भी देखना है। मेरी यह जिद उसके सपने की तरह है। लेकिन वह जानता है कि उसका सपना अभी गांव से 15 किमी दूर है। 15 किमी शहर के लिए जरूर कुछ मिनटों का फासला हो, लेकिन इस गांव में तो यह पूरे दिन का कार्यक्रम होता है। ऐसा नहीं है कि इस गांव को सड़कों के लिए पैसे नहीं मिले हैं। कई बार सड़कों की मरम्मत भी हुई है, लेकिन सड़क के पैर निकल आए थे, वे शहर पहुंच कर मकान की शक्ल में किसी के नाम से तैयार हो चुके हैं। दो दशक पूर्व गांव में बिजली आनी थी, इसके लिए पोल की गाड़े गए। लेकिन तार अब नहीं तनी। अब सड़क के नाम पर उन पोलों को भी हटाने की बात की जा रही है। गांववालों के लिए सरकारी योजनाएं उस पोखर (तालाब) की तरह है, जिसमें पानी न कहीं से आएगा, न कहीं जाएगा। ऐसे बिजली के खंभों के आने व जाने से गांव के विकास का ग्राफ नहीं बदल रहा है। रोशनी पहले भी नहीं थी, खंभों के हट जाने से भी अंधेरा नहीं बढ़ेगा। खंभे लगने के वक्त भी उम्मीद थी, खंभे हटने के बाद भी उम्मीद है। गांव के सीमा पर पुराने खंभे की अपेक्षा बड़े व मजबूत खंभे लगाए जा रहे हैं, आशा है कि उस पर तार तानी जाएगी, लेकिन कब तक, इसी सवाल का जवाब देना गांववालों के सामने आज भी सबसे बड़ा सवाल है। मुझे सभी गांववाले एक जैसे ही लगते हैं, वही कद, वहीं रंग, कंधे पर गमछा(तोलिया), जिस्म पर घोती, हाथ में चाह की गलास व बातों में जड़ता। ठहरे हुए पानी की तरह। जो नाउम्मीद के कारण बंदबू देने लगी है। हम ऐसा इसलिए कह रहे है, चंूकि हम जैसे शहरी परंपरा के आकाश के नीचे इन डूबते खेतों को छोड़कर आसानी से विकास के आंकड़ा पर सवार हो कर सभ्य संसार के सुरंग में दाखिल होने की इच्छा रखते हैं। तटबंध पर दौरते बच्चे बता रहे थे कि गांव का इकलौता स्कूल बंद है, खुला भी है, तो आज फिर शिक्षक नहीं आए हैं, सड़क पर झोपड़ीनुमा बने अस्थाई घरों में रह रहे लोगों का जीवन देख कर यही लगता है कि यहां श्रम का अवमूल्यन बाढ़ पीडि़तों की पारंपारिक विवशता नहीं, अपितु सुविधाओं के जंगल में अपने मचान को सुरक्षित रखने का हमारा आदिम उपाय है। छहड़ को ऊंचा कर देना, इन्हें इनकी जमीन के रिश्तों से जुदा करने के समान है। हम अपनी घुणित चालाकी पर पुलकित होते रहते हैं। राजीव कुछ इसी भाव से मुझे छहड़ की ऊंचाई बढऩे का ब्योरा दे रहे थे। इसी दौरान एक बूढ़ा शायद अधिकारी समझ कर मेरे पास आया। साहब इहां मटिया तेल नहीं मिलैत है, उसके चेहरे पर बहुत मायूसी दिखी। हम कुछ कहते इससे पहले राजीव का उत्तर आ गया,'हम जाइते कार्रबाई करव, बुझही तेल भेटि गेलौ। (हम जाते ही कार्रवाई करेंगे समझो तेल मिल गया)। गांव का इकलौता कंट्रोल (राशन की दुकान) राजीव के भाई को मिली हुई थी। वह काफी दिनों से बंद पड़ी हुई है। यह बात मुझे एक लड़के ने बताई। नया तौलिया लपेटे वह लड़का कुछ अलग दिख रहा था। दो दिन पूर्व वह असम से आया था। प्रचलित पिछड़ेपन की किदवंतियों की वजह से वहां हुई उपेक्षा की मार से वह अछूता नहीं बचा था। असम का आतंक उसके चेहरे की लालिमा में दब नहीं पा रही थी। पढ़ रहे हो, मैंने उससे फजूल का प्रश्न किया। थोड़ा ठहर कर बोला,हां अब बीए पास हू । यहां कोई काम क्यों नहीं करते। इतना कहते ही मुझे अपनी मुर्खता का एहसास हुआ। वह ठहर कर बोला, नौकरी अपने हाथ में कहां, जहां मिलेगी वहां जाएंगे। असम नहीं गुजरात सही। मैने लंबी सांस ली और आगे बढ़ गया। मैं याद करने लगा दिल्ली में एक सामाजिक कार्यकर्ता की भेंटवार्ता। शाम ढलने पर उन्हें बाढ़ में डूबा गांव कैनवास पर फैले किसी तस्वीर की तरह लग रहा था। नंगे बदन बिहारी,पीले तने वाले पेड़ और डूबे खेत उन्हें कविता लिखने पर विवश कर रहे थे। चारों ओर फैले पानी में डूबे घर, तैरता समाज, छहड़ों की जिंदगी,उन्हें किसी फिल्म के फ्रेम की तरह दिख रहे थे। एक अशालीन शर्मिन्दगी से उस दिन भी मेरा मन भर गया था, बिहारियों की फटेहाली से उन लोगों को जो सौंदर्य बोध होता है, वही बोध हिन्दुस्तानियों की फटेहाली देकर की अंग्रेजों को होता है। यह बात तो स्लमडॉग... के बाद मेरी समझ में आ गया। सभ्यता के विकास के लंबे चौड़े दावे करने वाला दिल्ली का वह समाज समय के सच के साथ हमारे सामने निर्वस्त्र बैठा है, इन बिहारियों से कहीं ज्यादा अशालीन। लेकिन हम इसे बड़ी आसानी से परंपरा और नियति के टोकरी में डाल देते है, जबकि यह इनकी नियति नहीं, हमारे समय के सच की सबसे अशालील दुर्घटना है, जो किसी इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं है, होती भी कैसे, कैनवास पर उभरे चित्र से बिहार की तुलना करने वाला भी तो अधिकतर बिहारी ही तो होते हैं। वह यह भूल चुके होते हैं कि आज का बिहार उनके सामाजिक मूल्यों के निर्वसन देह की एक्सरे कॉपी है। फिर यकायक ख्याल आया मैं भी तो इसी का हिस्सा हूं। ठीक उसी तरह जैसे बीडीओ साहब, जो आजकल समय से कार्यालय आने लगे है । काम भी बढ़ गया है। जमीनों का अधिकग्रहण हुआ है। लोगों को मुआवजा देना है, रोजगार कानून बन चुका है, लोगों को जॉब कार्ड बांटने है । ऊपर से लक्ष्य पूरा करने का दबाव भी है, लेकिन साहब के दरबार में सब काम अपनी गति से ही हो रहा है। उनके दरबार में मुखिया जी भी मिल गए। सभी से परिचय हुआ, बात आगे बढ़ी, बीडीओ साहब ने अधिकतर लोगों को आश्वासन देकर वहां से टरका दिया। मुखिया जी को मैंने रोक लिया। बताया गया कि गांव में उनकी काफी धाक है। गांव के विकास के लिए काफी सजग हैं, लोगों को जॉब कार्ड मिलने में हो रही देरी पर चिंतित हैं। 'यहां जमा अधिकतर लोग काम मांगने आए हैं, सरकारी कागजों पर इन्हें काम का हक मिल गया है, लेकिन यहां यह हक भीख के समान है। यहां इन्हें न काम मिल रहा है, न जॉब कार्ड। हर रोज सुबह आते हैं और कल आने का आश्वासन लेकर शाम को चले जाते हैं, मुखिया जी गुस्से से कंपते हुए कहते है कि यह दृश्य कल की दिखेगी, कुछ नहीं बदलेगा। कई बार ऐसा लगता है कि ये लोग यहीं जमा हैं, दिन भर, रात भर, सर्दियों से। बीडीओ साहब राजीव से कुछ खास बात करने के बाद मेरी तरफ मुखातिब हुए, तो मैंने अगला प्रश्न उन्हीं से किया। क्या केंद्रीय टीम यहां नहीं आती है, योजनाओं की समीक्षा के लिए ... मेरी बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि उन्होंने अपना मुंह खोल दिया, क्या खाक समीक्षा करेंगे, धूमेंगे, फिरेंगे और क्या? सरकारी जहाज, सरकार गाड़ी सरकारी खर्च पर बीबी के साथ दौरा करने आएंगे, गले में कैमरा लटका लेंगे, थमर्श में कॉफी भर लेंगे, पीछे गाड़ी में रखी रहेंगी योजनाओं की फाइलें। पहले बोधगया और नालंदा धूमेंगे, फिर कुछ देर के लिए यहां भी आ जाएंगे। पिकनिक का सरकारीकारण हो गया है। कविता-कहानी की तरह सरैगाह के अर्थ की बदल गए हैं। यहां आकर कोई बाढ़ की बात नहीं करता है। सब कोई बौद्धिकता की उलटियां करता है। संस्कृति की फ्रिक करता है। कहते-कहते बीडीओ साहब का चेहरा लाल हो गया। आप भी तो इसी व्यवस्था के अंग हैं, आपने भी तो इन गांववालों के जीवनस्तर में सुधार के लिए कुछ नहीं किया है, गांव का विकास के प्रति आप भी तो उदासीन हैं। नहीं, यह सही नहीं है। असल में इस इलाके के लोग ऐसी स्थिति से ऊपर उठाना नहीं चाहते। ये इसी हाल में संतुष्टï हैं। अब आप ही सोचिए, सरकार इन लोगों के लिए क्या कुछ नहीं करती, लेकिन ये वहीं के वहीं हैं, बीडीओ साहब इतना कह कर मुखिया जी को देखने लगे। मैं जान चुका था कि गांववाले अपनी स्थिति से कितने संतुष्टï है, मैंने सोचा सरकार यानि बीडीओ गांव के विकास के लिए कोशिश कर रहे हैं, मैं उनकी कोशिश देख रहा हू और कुछ-कुछ जान रहा हू । इसलिए उनके इस कथन का जवाब देना उचित नहीं समझा। असल में गांववाले अपनी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार लोगों को पहचान नहीं पा रहे हैं। वे आज भी इस स्थिति को भाग्य पर छोड़ देते हैं और भाग्य पलायन की रूप में इनकी जिंदगी में आता है। इतना पलायन सिर्फ बिहारी होने के नाम पर होते हैं। यह पलायन काम नहीं मिलने के कारण होता है। बीडीओ साहब के दरबार में अधिकतर लोग काम की तलाश में आए हैं, इनमें कई असम से मार खा कर लौटे बिहारी भी हैं। उन्हें सरकार ने तुरंत काम देने का भरोसा दिलाया है, लेकिन काम तो दूर इनका जॉब कार्ड बनना भी मुश्किल दिख रहा है। कर्मचारियों का कहना है कि फारम खत्म हो गया है। मुख्यालय से आएगा, तो मिलेगा। मुखिया जी इसी बात को लेकर परेशान हैं। कहते है- सरकार इन्हें काम देने की घोषणा करती है, जिला मुख्यालय से मुफ्त में फार्म भेजा जाता है, लेकिन इन लोगों के लिए वह दुर्लभ है। बीडीओ के बच्चे उसे राकेटनुमा खिलौना बनाकर उड़ा रहे हैं। हो हल्ला करते पर कुछ फार्म मिला भी तो, पांच-दस देकर ही जमा हो पाएगा। शातिर शहरीपन, अनुभवी दफ्तरी काइयापन कभी इन गांववालों को यह समझने का मौका ही नहीं देता है कि यह जॉब कार्ड उनका सिर्फ हक ही नहीं, बल्कि इसे बांटने का लक्ष्य भी सरकार ने तय कर रखा है। गांववालों से अधिक जल्दी इन बबुओं को है कि कैसे जॉब कार्ड बांटने का लक्ष्य पूरा किया जाए। इतने में परिसर में हलचल मच जाती है, पता चलता है कि फार्म आ गया। मुखिया जी उठकर गांववालों को समझाने चले गए। राजीव और हम भी बीडीओ साहब से आज्ञा लेकर आगे निकल पड़े। राजीव ने बताया कि कुछ गांववालों को असम में महज 100 रुपए के बदले वर्षों से काम लिया जाता था, यहां इन्हें 100 रुपए का काम भी मिल जाए तो लौट कर नहीं जाएंगे। मैंने सोचा शहरों में इन बिहारी मजदूरों की श्रमशक्ति के किस्से सुनाए जाते हैं। बड़े-बड़े अर्थशास्त्री इनकी बेटी की शादियों पर हो रहे खर्च की मजबूरी को इनका घावक शक्ति के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। हम खुश होते हैं कि कोई हमारे विकास की प्रसंशा कर रहा है। दरअसल श्रम का यह रूप पारंपरिक विवशता को कम करने के लिए यहां चार लेन की सड़क युद्ध स्तर पर बन रही हैं। बड़ी-बड़ी मशीनें रात-दिन चल रही हैं। इस सड़क का एक छोड़ गुजरात, तो दूसरा असम को जाता है। यह सड़क तेजी से गांव की ओर बढ़ रहा है, लेकिन गांव से वो बस भी जा रही है, जिस पर असम से आया वह लड़का बैठा है, जो तौलिया लपेट छहड़ पर मिला था। काम की तलाश में वह पलायन का रहा है। उसे आज भी जॉबकार्ड के लिए फार्म नहीं मिला। बस पर और कई ऐसे लोग हैं, जो काम की तलाश में गांव छोड़ रहे हैं, सड़क पर लगी मशीनों को देखकर बस पर बैठा मजदूर दूसरे मजदूर से कह रहा था- अबकी बेर सड़क गांव चलि जतैय (इस बार सड़क गांव पहुंच जाएगी)। मजदूरों की भावनाएं उबल रही हैं। जाने का दुख पर लौट आने की उम्मीद भारी पड़ रही हैं। उनमें विश्वास जग रहा है कि वे जल्द ही लौट आएंगे, लेकिन असली चिंता तो वहां है, जहां से हम गुजर कर आए हैं। पूरा समाज र्फाम देख कर 'अंगूठा' दिखा रहा है, जबकि सुशासन खुद अंगूठा चूस रहा है। राजीव ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर बस इतना कहा-टूटी सड़कों पर मजदूरों से भरी बस जल्द ही नई चौड़ी सड़क पर लौट कर आने के लिए गई है, इस गांव में एक दिन इन्हें काम मिलेगा। हमें उम्मीद बंधी है। मैं आहिस्ता-आहिस्ता गांव की ओर लौटने लगा। राजीव ने अग्रह किया तो पान खाने के लिए एक दुकान पर रुक गया। दोनों थक चुके थे, इसलिए गांव लौटने के लिए एक रिक्शा कर लिया। रास्ते में स्कूल से लौटते बच्चे मिले, पूछने पर पता लगा कि नए शिक्षकों की नियुक्ति हुई है, अब स्कूल रोज खुलेगा और शाम तक पढ़ाई होगी। रिक्शा पर बैठा दूर तक देखता रहा। बीडीओ कार्यालय में सुबह की तरह ही दरबार सजी थी। बीडीओ नदारद थे। मैंने सोचा अब कोई कला प्रेमi इधर आया, तो कहूंगा कि इन पाषण प्रतिमाओं को देखो, जिन्हें सदियां गुजर गई इस तरह बैठे हुए। इस दरबार को यहां से कोई नहीं उठा पाया। एक बीडीओ साहब गए, तो दूसरे आ गए। दरबार बदस्तूर चलता रहा। रिक्शा राजीव की चौखट तक आ चुका था। उसकी बेटी साइि‍कल से ि‍टयूसन पढने जा थी, जब ि‍क उसकी पत्नी के हाथों में अखबार था। समाचार छपा था बिहार के विकास के लिए विदेश से आ कर कुछ लोग पटना में मंथन कर रहे हैं।

3 comments:

satyendra said...

इस इलाके के लोग भी अजीब होते हैं, सुबह हो या रात, हर वक्त हाथ में 'चाह' (चाय) की गिलाश और मुंह में पान।

...अद्भुत तरीका है। मैं तो तंबाकू दबा के भी चाय पीने में दिक्कत महसूस करता हूं।

satyendra said...

आप का लेख पूरा पढ़ा। इसे अगर आप १०० गुणा १० बटा १०० कर देते तो ज्यादा मजा आता। वैसे आपने जिस वर्ग का सवाल खड़ा किया है उसका उद्धार वर्तमान व्यवस्था में कम से कम मुझे संभव नहीं लगता। यह व्यवस्था जहां से मनमोहन सिंह ने चुराई है, वहां की चमक के नीचे भी भूख है। हां, इतना बदलाव जरूर आ जाएगा कि वह चमक आ जाएगी (उस वर्ग से १५ किलोमीटर दूर) लेकिन फासला बना रहेगा, या कहें कि और बढ़ जाएगा। इस व्यवस्था में माना जाता है कि समृद्धि इस वर्ग तक श्रिंक (छनकर) होगी और थोड़े बहुत उच्चवर्गीय नौकर पैदा हो जाएंगे।

अगर ऐसा भी हो जाए तो अच्छा ही है, क्योंकि बिहार में तो १५ किलोमीटर दूर वाली चमक भी अब तक नहीं थी।

http://www.seemanchal.com said...

MAZA AA GAYAIS OVERVIEW KO PADH KAR.. LIKHTE RHYE