इसमाद

Tuesday, April 13, 2010

ग्लोवल वार्मिंग से बचना है, तो मनाएं जुड़-शीतल

मिथिला की प्रकृतिपूजकसंस्कृति का अद्भुत पर्व है जुड़-शीतल। ग्लोवल वार्मिंग के इस दौर मे इस पर्व की उपयोगिता और सार्थकता बढ़ गई है। हम अर्थ आवर के नाम पर उन जगहों की बत्ती भी बंद कर देते हैं, जहां बिजली कभी-कभार आती है। क्या हमने कभी रसोई से निकलनेवाली ऊर्जा पर गौर किया है। क्या हमने कभी रसोई को आराम देने की कोशिश की है। नहीं। लेकिन मिथिला में एक वर्षों पुरनी परंपरा हमें ऐसा करने की प्रेरणा देती है। आज बहुत लोग इस पर्व के संबंध में नहीं जानते, मिथिला में भी यह पर्व सिमटता जा रहा है। अखबार और पत्रिका में भी इस पर्व के संबंध में कोई जानकारी नहीं है। उनकी भी मजबूरी है। न कोई बड़ा नेता इस पर्व को मनाता है और न ही कोई कलाकार या खिलाड़ी। ऐसे में इस पर्व के बारे में कहीं न जगह है और न ही कहीं समय। लेकिन इस पर्व की रोचकता और वैज्ञानिकता इसे मरने से बचा रखी है। अगर इस पर्व को छठ के समान प्रचारित किया जाए, तो इस अद्भूत पर्व पर पूरा विश्व फिदा हो जाएगा। मूलरूप से यह पर्व सूचिता अर्थात साफ-सफाई से संबंध रखता है। दो दिवसीय इस पर्व का पहला दिन सतुआइन और दूसरा दिन धुरखेल कहा जाता है।

सतुआइन(14 अप्रैल) : जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है कि इसका संबंध सत्तू से है। सतुआइन केेदिन लोग सत्तू और बेसन से बने व्यंजनों को खाते हैं। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि सतुआइन के अगले दिन चूंकि चूल्हा नहीं जलता है, इसलिए सतुआइन के दिन बना खाना ही लोग अगले दिन खाते हैं। ऐसे में सत्तू और बेसन के व्यंजनों के गर्मी के मौसम में खराब होने की आशंका कम होती है, इस लिए ऐसा किया जाता है। इस दिन सुबह जेठ(घर में सबसे बड़े) छोटे के सिर पर पानी डालते हैं, माना जाता है कि इससे पूरे गरमी के मौसम में सिर ठंडा रहता है।

धुलखेल (15 अप्रैल) : इस दिन उन सभी स्थानों को विशेष तौर पर साफ किया जाता है, जहां पानी होता है। जैसे तालाब, कुआं, मटका, संप, टंकी आदि। परंपरा के अनुसार इन स्थानों की सफाई के दौरान विनोदपूर्ण क्रिया की जाती है। जैसे एक-दूसरे के ऊपर पानी डालना या फिर तालाब या कुंए से निकलनेवाली काई अर्थात सड़ी मिट्टïी एक-दूसरे पर फेंकी जाती है। इस सफाई से जहां तालाब और कुंए में नए जल का आगमन होता है, वहीं समाज के सभी जातियों व वर्गों का आपस में मेल-मिलाप भी बढ़ता है। छठ की तरह ही इस पर्व में भी जाति या धर्म का कोई बंधन नहीं होता है और लोग आपस में मिलजुल कर सार्वजनिक व निजी जलसंग्रहण स्थल की सफाई करते हैं। एक प्रकार से यह पर्व होली की तरह ही मनाई जाती है। फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें पानी और किचड़ मात्र से एक-दूसरे को नहलाया जाता है। शहरों में लोक अब संप, वाटर फिल्टर और कूलर को साफ कर इस पर्व को मनाने की नई शुरूआत की है। इसी दिन जहां पहले मिट्टी के चूल्हे की मरम्मत होती थी, वहीं आज लोग गैस चूल्हे की ऑवर व्लाइलिंग करवाने लगे हैं। तालाब से लेकर रसोई तक की सफाई के बाद लोगबासी (एक दिन पहले बना हुआ खाना) खाना खाते हैं। दोपहर बाद आसमान पतंगों से भरा होता है। मिथिला के कई शहरों व गावों में आज के दिन मेला लगता है और लोग तरह-तरह के पतंग लेकर आसमान में पेंच लड़ाते हैं। इस पर्व को बचना चाहिए, फैलना चाहिए, क्योंकि यह समाज को धर्म और जाति के बंधन से मुक्त करता है।

1 comment:

arvind said...

मिथिला के कई शहरों व गावों में आज के दिन मेला लगता है और लोग तरह-तरह के पतंग लेकर आसमान में पेंच लड़ाते हैं। इस पर्व को बचना चाहिए, फैलना चाहिए, क्योंकि यह समाज को धर्म और जाति के बंधन से मुक्त करता है। ....bahut sahi baat likha hai aapne.