इसमाद

Thursday, March 11, 2010

रास्ते चुप-चुप, रोशनी मध्यम

किसी भी पत्रकार के लिए नरसंहार के बाद उस इलाके की यात्रा खास होती है। यह तब और खास हो जाती है जब वह इलाका आपका अपना गांव हो। बिहार के कोरासी के आसपास के लोगों की बदली हुई जिंदगी पर रोशनी डालता पत्रकार अमरेंद्र कुमार का रिपोर्टाज

अमरेंद्र कुमार

तारीख 27 फरवरी, समय साढ़े छह बजे, स्थान सबलबीघा (जो मेरा गांव है)। मैं आज ही दिल्ली से पटना होते हुए अपने घर पहुंचा हूं। मां आधे घंटे से रात का खाना खाने के लिए आवाज लगा रही है। दिल्ली में रात करीब दो बजे खाने की आदत को त्यागकर आखिरकार मैं तैयार हो जाता हूं। इस बीच मां के इशारे पर छोटी बहन मुख्य गेट में ताला लगाने चली गई। माजरा मेरे समझ में आने लगा। मां मुझे घर से बाहर जाने से रोकना चाह रही थी। आधे घंटे में घर लौट आने का वादा करने के बाद आखिरकार मां मान गई। अपने सामर्थ से अधिक अंधेरा उठाए सुनसान गलियां अपने ही गांव में मुझे अजनबी जैसा लग रहा था। कुत्ते के भौंकने के अलावा कोई आवाज किसी ओर से नहीं आ रही थी। मेरे गले यह बात नहीं उतरत रही थी कि आखिर गांव पहले से अधिक डरा हआ क्यों लग रहा है। जबकि मैं यह जानता था कि मेरा गांव उस कोरासी से महज एक कोस की दूरी पर है, जहां पांच दिन पहले एमसीसी के सदस्यों ने हमला बोल कर पूरे गांव को तबाह कर दिया था। दर्जन भर लोग मारे गए थे और दर्जन भर को वे अपने साथ ले गए थे। इस घटना के बाद से कोरासी के साथ-साथ पास के 11 गांवों की शांति भंग हो गई और शाम होते ही लोग अपने घरों में दुबकने को मजबूर हो गए हैं। होलिका दहन के एक दिन पूर्व गांव के इस सन्नाटे ने मुझे बिहार में कानून और व्यवस्था के हालात पर फिर से सोचने को विवश कर दिया। पिछले साल तक होली के एक सप्ताह पहले से ही ढोल-झाल लेकर रात भर गांव वाले काली मंदिर मे जागरण करते थे। इसके लिए कोई न कोई माला उठाता ( इसका मतलब है चाय-बिस्कुट, तंबाकू-बीड़ी की व्यवस्था करना) था, पर इस बार तो शाम ही रात पर भारी दिख रही है। देर रात तक खुला रहनेवाला रोहिणी वाली भौजी के घर का गेट बंद हो चुका था। प्रदीप भइया के घर का दरवाजा भी बंद दिखा। मैं आवाज देता हूं तो अंदर से तिरो काका (त्रिपुरारी काका) की आवाज आती है- खाना खा रहा हूं, जा घर जाके सो जा। आगे बिभाष के घर का दरवाजा खटखटाया। बिभाष दरवाजा खोलता है। बैठने के साथ ही चाची कहती है- जा अपने घर जा। जमाना अब वो नहीं रहा। मुझे याद आया मैं 11 बजे रात तक यहां बैठा रहता था और कोई मुझसे यह नहीं कहता कि रात बहुत हो गई अब घर जाओ। मैं पांच मिनटों में वहां से निकल पड़ता हूं। यह देखकर राहत मिली कि बंटी की दुकान खुली हुई है। कभी यहीं हम लोगों की बैठकें होती थीं। समाज को बदल देने का सपना देखनेवालों की यहां भीड़ रहती थी। लेकिन आज बंटी अकेला है। मुझे देखा, तो बोला- इस होली बाहर से गांव आनेवालों में तुम अकेले हो, इसी लिए इतनी रात गए घूम रहे हो। मेरी नजर घड़ी पर गई, देखा रात पौने आठ बजे थे। यही वो वक्त था जब हम लोग बंटी की दुकान पर जमा हुआ करते थे। मैंने उससे गांव में आए इस बदलाव के संबंध में जानना चाहा, तो एक लंबी सांस लेते हुए बोला-छह बजे के बाद अब कोई नहीं बैठता। डर बैठ गया है। किसी से नहीं डरनेवाला आदमी भी अब कमरे में कोने में दुबककर सो रहा है। मैं निराश होकर घर लौट आता हूं। देखता हूं दरवाजे के बाहर हाथ में टॉर्च लिए चिंतित मुद्रा में बाबूजी टहल रहे थे। मां बिछावन पर बैठी हुई थी। बहन अंदर-बाहर कर रही थी। मुझे देखते ही तीनों को सुकून मिला। मैं भी मां के पास आकर बैठ गया और माहौल को बेहतर बनाने के लिए बातचीत करने लगा। मैं माहौल को बेहतर करने के प्रयास में दिल्ली की सच्ची, झूठी कहानियां सुनाने लगता हूं, जिसे सुनकर मां और बहन तो ठहाके लगाती रहीं, पर बाबूजी को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा हो। उनपर मेरी कहानियों का कोई असर नहीं हुआ। फिर मैं उनलोगों को समझाने की कोशिश करने लगा कि एमसीसी की हमारे गांव से कोई दुश्मनी नहीं है। फिर भला वह हमें नुकसान क्यों पहुंचाएंगे। मां-बाबूजी खामोशी से मेरी तरफ देखने लगे, मानो मेरी बातों में दिल्ली का प्रभाव तलाश रहे हों। बहन ने बताया कि पिताजी घटना के दिन से अबतक रात में सो नहीं पाए हैं। उस रात मैं पिताजी के बगल में ही सो गया। मुझे कब नींद आ गई, पता नहीं चला, लेकिन अचानक से एक आवाज ने मेरी नींद तोड़ दी। देखता हूं पिताजी नींद में भागो-भागो चिल्ला रहे हैं। मैं उन्हें जगाता हूं वो पूरी तरह कांप रहे थे। शरीर पसीने से तर-बतर था। आवाज सुनकर मां और बहन भी जाग जाती हैं और दौड़कर हमारे कमरे में चली आती है। मेरी नजर घड़ी पर पड़ती है। 12 बज रहे थे। यह वही वक्त है जब हम दिल्ली में दफ्तर से घर लौटते हैं। पिछले एक सप्ताह से बिताए अन्य रातों की तरह आज भी वह सो नहीं सके। लेकिन सुबह होते-होते मुझे नींद आ गई और मैं सो गया। नींद सुबह नौ बजे खुली।


शहरीपन ओढ़े दहशत ने बदल दी होली

मां और बहन पकवान बनाने में जुटी थी। आज अगजा (होलिकादहन) है। मैं जगा दतवन लिया, गांव की और निकल लिया। अफवाहें अलग-अलग। तरीके अलग-अलग। हर गली के कोने पर एक चौपाल लगा है। मैं सुनता जाता हूं। रात में माओवादी के 200 लोग गांव से होकर गुजरे। कोई कहता- 50 लोग गांव को घूम-घूमकर देख रहे थे। कोई कुछ तो कोई कुछ। जितने मुंह उतनी बातें। मैं सुनता रहा। इसमें कुछ लोग सरकार को कोस रहे थे, तो कुछ पुलिसिया तंत्र को। कहते- पहले से सूूना रहने के बाद भी भाग गए थे पुलिस वाले। सरकार तमाशा देखती रही। शाम होते-होते मुझसे बड़े भाई भी जो दरभंगा में रहते हैं वो आ पहुंचे। अब होलिकादहन का समय करीब आनेवाला है। ऐसे तो 10 बजे रात तक का शुभ समय पंडित जी कह गए थ, लेकिन सभी को जल्दी की पड़ी थी। सात बजे ही चल दी टोली। रास्ते में गांव से बाहर सड़क पर लोगों की नजर जाती है। सचेत हो उठते हैं। मेरी भी नजर उस ओर जाती है। तेज चलती हुई कई गाडिय़ां कतारबद्ध होकर गांव को क्रास कर रही थी। मैं समझ जाता हूं। ये गाडिय़ां तो लछुआड़ जा रही होगी। वहां जैनधर्म का विशाल मंदिर है। हर रोज सैकड़ों गाडिय़ों से जैन धर्मावलंबी यहां आते हैं। पर यहां भी अफवाह। पुलिस की गाडिय़ां हैं। जरूर वहीं (कोरासी) जा रही होगी। खैर जैसे-तैसे होलिकादहन कर साढ़े आठ बजे घर लौट जाते हैं। हां एक बात और इस बार होली में ज्यादा लोग नहीं आए। गांववालों ने अपने-अपने बच्चों को आने से मना कर दिया। रात सोता हूं, सुबह होती है। आज होली है। बाहर जोर-जोर से ढोल बज रहे हैं। बच्चे एक-दूसरे को धूल में लपेट रहे हैं। मैं भी शामिल हो जाता हूं। जाना है धूरखेल (जो रात में जलाया वही उड़ाने जाना है) को। धूल भी उड़े और कीचड़ भी और फिर फ्रेश होकर लोग शाम तक रंगों का भी आनंद लिया। जैसे-तैसे दो दिनों की होली भी बीत गई। कहीं कोई लड़ाई नहीं हुई। सबलोग अनुशासित थे। जो किशोर बुरा न मानो होली है कहकर किसी को भी रंग देने से नहीं चूकते थे। उन्होंने भी कोई गलती नहीं की। आश्चर्यजनक। याद आया पिछला साल। मिंटू के घर होली की टोली जुटी थी। कुछ लोग ढोल-झाल के साथ बिरज में आज होरी गा रहे थे। बाहर किशोरों व युवाओं की टोली। खूब मस्ती। राकेश, विक्की, बिट्ट, प्रवीण, रोशन, राहुल, चंदन, बंटी, सोनू लगे हैं राहगीरों को रंग लगाने में। किसी को नहीं छोड़ रहे। इदरीस भाई से लेकर बगल के गांव के श्यामसुंदर तक को रंग लगा दिया। लड़ाई-झगड़े की कोई परवाह नहीं। कुछ बुजुर्ग बाहर खड़े हैं कि बच्चे मारपीट न कर लें। लेकिन इसबार तो सबकुछ बदल गया। मन ही मन सोचने लगा यह अनुशासन, यह चिंता यह बदलाव कहीं हमारे वर्षों पुरानी परंपरा को खत्म तो नहीं कर रहा। शहरीपन ओढ़े दहशत कहीं हमें अपनो से जुदा तो नहीं कर रहा। क्या सचमुच लोग बदल रहे हैं, गांव बदल रहा है और बदल गई है होली की वो हुड़दंग। या फिर यह वो बदलाव है, जो दिल्ली में बैठकर मैं नहीं देख पा रहा था। अखबारों और टीवी पर बिहार की बदलती छवि के बारे में जो सुना वो अगर ऐसा दिखेगा तो आखिर यह बदलाव किसे अच्छा लगेगा.....

सरकार को बुरा कहूं या भला

होली के अगले दिन मुझे सिकंदरा जाना था। सिकंदरा-जमुई के बीच चलनेवाली बसें अब मेरे गांव होकर गुजरती हैं। यह जानकर अजीब सी खुशी हुई। मैं सड़क बस का इंतजार कर रहा था, बस तय समय पर आयी। बस की सीट पर बैठा तो अनायास मुंह से नीतीश सरकार के नाम वाह निकल आया। जब से गांव आया था पहली बार विकास को इतने करीब से देख पा रहा था। दिल्ली की सड़कों और मेरे गांव की सड़क आज एक जैसी दिख रही थी। एक दम चिकनी। हां, अंतर था तो केवल ट्रैफिक का। गांव की सड़क से गुजरनेवाली गाड़ी बिना रुकावट 100 किमी प्रति घंटा के हिसाब से गुजर रही थी, कहीं जाम नहीं। सड़क अच्छी होने के कारण घंटों का सफर मिनटों में बदल गया। सड़क बनने से इस इलाके में गाडिय़ों की संख्या भी बढ़ गई हैं। सड़क के दोनों ओर बहुत सारी दुकानें भी खुल गई हैं। टायर पंक्चर ठीक करने की दुकान पर बस रुकती है। कुछ लोग उतरते हैं। वहां पान की चार दुकानें। किराने की दुकान। सिंघाड़ा (समोसा) की दुकान। सब पिछले दो-चार सालों में खुले हैं। अच्छा लगा, यह सोच और देखकर कि इनलोगों को गांव में ही रोजगार करने के लिए माहौल और अवसर मिल गया है। बस की हॉर्न बजती है और आगे बढ़ निकलती है। बस में बैठे लोग न पहले की तरह राजनीति और क्रिकेट पर बात करते दिखे और न ही जातिवाद और माओवाद का कोई बोझा उठाए बैठा दिखा। बस सभी जल्द से जल्द अपनी मंजिल पर पहुंचने का बेताब दिखा। बस स्टैंड में आ खड़ी होती है। मैं घड़ी देखता हूं, सात मिनट में सिकंदरा पहुंचा था। मेरे लिए यह एक सपने का सच होने जैसा है। लेकिन आगे जिस चीज पर मेरी नजर पड़ी वो तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था। सिकंदरा चौक पर सड़कों की ढलाई हो चुकी है। मुझे याद है पहले यहां जांघ भर गड्ढे हुआ करते थे। मेरे लिए यह भी कम चौंकानेवाली तसवीर नहीं थी कि आज इस बाजार में सप्लाई का पानी आता है, ठीक दिल्ली की तरह। चापानल की जगह नल, वाह! बरबस मुंह से निकल पड़ा। आगे बढ़ा नल खोला, पानी आ रहा था। प्यास नहीं लगी थी, फिर भी दो घूंट पानी पीकर बैंक की ओर बढ़ निकला। बैंक में भी उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ थी। लेकिन लोग कतार में थे, मैं भी एक लड़की के पीछे खड़ा हो गया। मेरे आगे खड़ी नौवीं कक्षा की छात्रा ने बताया कि वो सरकारी योजनाओं से मिलनेवाली साइकिल और स्कूल ड्रेस के लिए बैंक में खाता खुलवाने आई है। एक सवाल मन में आया। पूछने पर जवाब भी मिला। पिछड़ी जाति से आनेवाली कतार में खड़ी एक अन्य छात्रा ने कहा,'पहले मुखिया-सरपंच की ड्योढ़ी पर नाक रगडऩा पड़ता था। ड्रेस व साइकिल के पैसों में कटौती हो जाती थी। समय से एक-दो माह बाद पैसे मिल पाते थे। अब ऐसा नहीं होगा।Ó माजरा समझ में आ गया। यहां भी कमिशन। भ्रष्टïाचार। लेकिन सरकार सचेत। उसने व्यवस्था बदल दी। सीधे छात्राओं के खाते में पैसे जाएंगे। होली की थकावट की वजह से मैं कतार में अधिक देर तक खड़े रहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, लेकिन पहले की तरह न कतार तोड़ पा रहा था और न ही इस बदली व्यवस्था पर गुस्सा आ रहा था। सच कहूं तो व्यस्था नहीं बदला, लोग बदल गए हैं। बैंक में भीड़ बढ़ गई है, लेकिन काउंटर उतना ही है, जितना पहले हुआ करता था। कर्मचारी की किल्लत झेल रहे इस बैंक की मजबूरी भी समझ में आ गई। मैं बिना पैसा निकाले बैंक से लौट आया। काम नहीं होने के बावजूद मन को यह सुकून मिला कि मेरा गांव-शहर अब बदलने लगा है। छात्राएं खुद कतार में खड़े होकर खाता खुलवा रही हैं। मैं इस बदलाव और और देखना चाहता था, लेकिन मुझे पटना जाना है। शाम चार बजे। मां मेरे जाने को लेकर इस बार कुछ नहीं बोल रही हैं। आज एक बार फिर मैं उसके सामने दिल्ली चलने का प्रस्ताव रखा। वो फिर वही बात दोहराने लगी। मां कहती है- मर जाऊंगी दो कमरे के मकान में। कोई मुझसे कहेगा- पानी खर्चा कम करो। कोई आवाज न होने पाए। ये सब मुझसे नहीं होगा। गांव में अपने मन की मालिक हूं। कोई हुक्म चलानेवाला नहीं। मन लगा तो घर में रही नहीं तो गांव घूम आई। फिर वो अजीब सी खामोश हो जाती है। मेरे सिर पर हाथ रखती है और धीरे से बोलती है-बेटा देवघर में जमीन देख लो। पसंद आए तो ले लो। दो कोठरी भी बना दो। मेरी मां की उम्र 60 पार है। आज भी उसकी आदत किसी के घर जाने की नहीं है। गप लड़ाने की नहीं है। पर तर्क में तो मैं हार जाता था। एक सप्ताह में सबकुछ बदल गया। आज मुझे बोलने की जरूरत नहीं। मुझे पता है, दो कमरों में मां तो मां का दम घुट जाएगा। सिकंदरा से पटना की यात्रा शुरू होती है। खिड़की से बाहर खेत और मकान मेरी नजर के सामने से गुजर रहे थे। मैं सोचने लगता हूं। लोगों के खौफ के बारे में। होली के उड़े रंग के बारे में। बाबूजी के न सो पाने के बारे में। मां का गांव छोड़ बाहर घर बनाने की इच्छा के बारे में। गाड़ी में ब्रेक लगता है। खलासी चिल्लाने लगता है- जमुई आ गया है। मोबाइल देखता हूं। इतनी जल्दी जमुई पहुंच गया। 35 मिनट लगे। आश्चर्य भी हुआ। हिचकौले खाने को नहीं मिले। पीछे की सीट पर था। अनायास एक बार फिर 'वाहÓ कर उठा। सड़क बनानेवाले के लिए। सरकार के लिए। बस से उतरकर ऑटो पकड़ा। पहुंच गया जमुई स्टेशन। ट्रेन लेट थी। बैठ कर सोचने लगा। पहले रेलवे स्टेशन से गांव पहुंचने में दो से ढाई घंटे खर्च होते थे। लगातार हिचकौले खाते रहने से कमर में दर्द शुरू होता था। महिलाएं उलटी करते-करते परेशान हो जाती थी। सिकंदरा के बाद ऑटो रिजर्व कर गांव पहुंचना पड़ता था। समय से साथ पैसे ज्यादा खर्च होते थे। आज गांव में गाड़ी मिल जाती है। बमुश्किल एक घंटे में रेलवे स्टेशन पहुंच जाता हूं। हिचकौले खाने को नहीं मिलते। पैसे भी उतने खर्च नहीं होते। लेकिन एक सप्ताह पहले जो घटना घटी। नहीं घटती। हम होली मनाते। सबलोग आते। और विकास की बात आती। कोई विरोध नहीं करता। सबका सुर होता- सरकार ने अच्छा काम किया है। मेरी ट्रेन आ जाती है। मैं पटना के लिए निकल पड़ता हूं। मन में तुलना करने लगता हूं। सरकार को बुरा कहूं या भला। .....

दिल्ली अभी दूर है

जैसा सुना था, पढ़ा था, वैसा ही पटना दिखता भी है। फ्लाईओवरों से शहर सुंदर बन गया है। कई मॉल खुल गए हैं। पहले चीं-पीं करतीं रेंगती गाडिय़ां अब बिना हॉर्न बजाए सरपट दौड़ रही हैं। पटना हाईकोर्ट के सामने फुट ओवरब्रिज बन गया है। बेली रोड अब अकेला नहीं रहा। वैसी पटना की अधिकतर सड़कें हो चुकी हैं। पहले डर था, अन्य सड़कों की तरह ही कहीं बेली रोड भी न बन जाए। आज देख कर अच्छा लग रहा कि अन्य सड़क ही बेली रोड की तरह चिकनी हो गई हैं। बिहार की राजनीति में समानता का ऐसा प्रयोग दलित और पिछड़ों के लिए भी होनी चाहिए। उन्हें भी बेहतर और ऊंचा बना कर सभ्रांत और विकसित समाज के बराबर खड़ा करने की पहल होनी चाहिए। मेरा रिक्शा बोरिंग केनाल रोड की ओर मुड़ता है। यहां नाले से आने वाली बदबू गायब है। अब नगर निगम पटना में है, यह पता चल रहा है। काम दिख रहा है। केनाल पर खूबसूरत सी कार पार्किंग है। गाडिय़ां अब पार्किंग में खड़ी होने लगी हैं। पहले रोड पर ही खड़ी रहती थी। अब सबकुछ बदल गया है। नहीं बदला है तो सिर्फ मेरा वो मकान जहां पटना में नौकरी के दौरान में भाड़े पर रहा करता था। वहां अपने पुराने विस्तर (जिसपर अब मेरे मित्र सोते हैं) पर एक गहरी नींद लेकर मैं दिल्ली के लिए संपूर्णक्रांति पकडऩे के लिए स्टेशन निकल पड़ता हूं। रिक्शा पर पटना को निहारते हुए मुझे गांव के चौपाल पर हुई बहस याद आ रहा है। देखो कितनी अच्छी सड़क है। विभिन्न कंपनियों की मोबाइल सेवा घर के किसी भी कोने में पहुंच गई है। बिजली दिन में सही मोबाइल चार्ज करने और इन्वर्टर चार्ज करने के पर्याप्त समय तो दे रही है। गांव में हर घर में जेनरेटर का कनेक्शन दिया गया था। शाम छह बजे से रात दस बजे तक अंधेरा तो नहीं होता है। मुझे लोगों के सोच बदलने का ख्याल आया। विकास की पहल ने ही लोगों की सोच बदली है। लेकिन पटना स्टेशन पर ट्रेन में बैठते ही सोचने लगा। मां क्या कर रही होगी। कब तक बाबूजी जागते रहेंगे। गांव से खौफ कब दूर होगा। आवेश में मु_ियां बंध जाती है। पुलिस प्रशासन व सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़क उठता है। कुछ नहीं किया। बाद में सुरक्षा देकर लोगों के मन से खौफ तो भगा सकती थी। कम-से-कम रोज-रोज तो अफवाह भी तो नहीं उड़ते। माओवादी गांव में आए थे रात में। ट्रेन धीरे-धीरे दिल्ली की ओर रवाना होती है, ठीक उसी तरह जैसे बिहार आगे बढ़ रहा है। खुद ही खुद से कहा दिल्ली अभी दूर है।...

3 comments:

Unknown said...

लिखते रहिये....! इंतज़ार रहेगा...!

shan e awadh said...

amrendra! kya khoob likha hai. yaar yakeen nahi hota tum itne gambheer aur parkhee ho. gujaish haim ke likhte rahna. maza aa gaya. main to sirf tumhe sports repoeter aur khati desk man janta tha, per tum kutch aur bhee ho. ek baar hriday se badhai.

chandan roy said...

umda lekhan...
gaw-ghar ki har shay jaise sire se jeewant ho gayi. holi me ghar par na hokar bhi repotarz ne ghar ka sa ehsaas karaya aur dikhayi Bihar vikash ki Ek Jhalak.. jispar dur dilli me baitha bhi garva kar saku.
aapka lekhan mahaz shabdon ki jadoogiri nahi .. hakeekat ka aaina bhi hai...
padhna shuru kiya to anwarat padhta hi chala gaya.
Umeed hai aage Bhi LIKHTE rahenge.