इसमाद

Tuesday, April 28, 2009

सब की नजर नीतीश पर

बिहार में इन दिनों एक सियासी बतकही खूब प्रचलित है। जॉर्ज को टिकट न देने के पीछे व्याख्या यहां के राजनीतिक पंडित अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं। सियासत की समझ रखनेवाला एक तबका मान रहा है कि जॉर्ज को पार्टी की टिकट पर सांसद बनने का अवसर न देकर नीतीश ने अपनी भविष्य की राजनीति के लिए विकल्पों की एक बड़ी खिड़की खुली रखी है। बात कुछ पेचीदा तो है, पर बात में दम भी है। अगर 16 मई को राजग सरकार बनाने के अंकगणित में पिछड़ा और जदयूू की ताकत से यूपीए की ताजपोशी हो सकने की स्थितियां बनीं, तो नीतीश सीधे न सही, चोर दरवाजे से ही सही यूपीए के लिए सत्तारोहण का मार्ग खोल सकते हैं। इस सूरत में अगर जॉर्ज जदयू की टिकट पर लोकसभा में रहते तो उनका चीर कांग्रेस विरोध नीतीश की इस रणनीति के रास्ते में अवरोध बनता। इस लिए भविष्य के मद्देनजर बुजुर्ग जॉर्ज साहब को नीतीश ने 'राम-रामÓ करना ही बेहतर समझा। हालांकि अभी नीतीश यही कह रहे हैं कि फिलहाल राजग में ही हूं, लेकिन साथ में यह भी जोड़ रहे हैं कि कल की कौन जानें? आनेवाले दिनों में उनकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होगी, इसका अंदाजा सभी को है। जहां लालकृष्ण अडवानी ने उन्हें प्रचार के लिए अपना विशेष हेलीकाप्टर दे रखा है, वहीं कांग्रेस भी मुद्दत से नीतीश की सराहना का मंत्रजाप कर ही रही है। नीतीश बिहार में उस राजनीति की भी शुरुआत करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें केंद्र और राज्य के संबंध एक-दूसरे के हित पर निर्भर करते हैं। न कि पार्टी या गठबंधन पर। यही कारण है कि नीतीश राजग में होते हुए भी वरुण गांधी, बाबरी मस्जिद और धारा-370 पर भाजपा से अधिक कांग्रेस व वामदलों के नजदीक दिखे। नवीण पटनायक के राजग छोडऩे के बाद धर्मनिरपेक्ष नेताओं में नीतीश अकेले बच गए हैं। बिहार में नरेंद्र मोदी की कोई सभा नहीं होने के पीछे भी नीतीश का दबाव ही रहा है। उड़ीसा में अपनी स्थिति को देखकर भाजपा भी यह मान चुकी है कि बिहार में जदयू को जितनी जरूरत भाजपा की है, उससे कहीं अधिक भाजपा को जदयू की है। नीतीश स्थानीय मुद्दों से राष्टï्रीय राजनीति करनेवाले बिहार के पहले नेता हैं। यह बिहार के लिए नई राजनीतिक शुरुआत है। इस प्रकार की राजनीति दक्षिण के राज्यों में हुआ करती है। बिहार की परंपरा रही है कि यहां के नेता राज्य से अधिक देश की बात करते रहे हैं। विकास के लिए ऐसी राजनीति जरूरी है और नीतीश यह बात लोगों को समझाने में भी सफल हो रहे हैं। इसीलिए वे जनता से इतनी ताकत देने को कहते हैं कि कोई बिहार का हक मारने का साहस न कर सके। नीतीश दल और गठबंधन से परे केंद्र से एक ऐसा रिश्ता चाहते हैं, जो बिहार के हित में हो। नीतीश में दक्षिण के नेताओं की तरह केंद्र से सौदेबाजी करने की हिम्मत भी है और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री की तरह केंद्र से गुहार लगाने की मजबूरी भी। यही कारण है कि एक तरफ वो केंद्र से पैसों से ज्यादा आजादी चाह रहे हंै, वहीं दूसरी तरफ बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना चाह रहे हैं। केंद्र की राजनीति से बिहार लौटे नीतीश राज्य में राजनीति का एक नया माडल तैयार कर रहे हैं। उनका शांत, गंभीर और भावहीन चेहरा मित्रों के लिए भी अबूझ पहेली की तरह है। लालू प्रसाद कहते हैं कि नीतीश के पेट में दांत है। उनके कुछ मित्र भी ऐसा मानने से इनकार नहीं करते, लेकिन उनकी साफगोई सभी को हैरान कर रही है। कभी जनता से सीधा संवाद करना लालू का सबसे मजबूत हथियार था, लेकिन इसके विपरीत नीतीश लोगों से सिर्फ सीधा संवाद ही नहीं करते, बल्कि गोतिया बन जातें हैं। वो एक शिक्षक की तरह लोगों को समझाते हैं कि कैसे उनकी सरकार ने लाठी की जगह कलम पकड़ा कर बिहार के लड़के-लड़कियों के लिए 21 वीं सदी का मार्ग प्रशस्त किया। उनके भाषण में आत्मीय बोध इतना होता है कि भीड़ का रिस्पांस देखते ही बनता है। नीतीश जब यह कहते हैं कि स्कूली लड़कियों के लिए पोशाक और साइकिल की व्यवस्था कर रहे हैं, ताकि यह शादी के बाद जिस घर में जाएं उसे भी शिक्षित कर सकें तो भीड़ के अंतिम कतार में खड़ी लड़की भी अपनी ताली की आवाज उन तक पहुंचाना चाहती है। बिहार की जनता की क्षमता को गौरवांन्वित करते हुए वे कहते हैं दिल्ली से हमें पैसा नहीं चाहिए। ये लोग जो तंग करते हैं, वह बंद होना चाहिए। नीतीश हर सभा में कहते हैं, किसी को अपने बेटे को आगे बढ़ाने की चिंता है, तो किसी को भाई और बीवी की, तो कोई साले के लिऐ मर रहा है, लेकिन उन्हें बिहार के नौ करोड़ लोगों की चिंता रहती है। बिहार ने राजेंद्र प्रसाद की शालीनता देखी है। जयप्रकाश की जीवटता के साथ ही लालू प्रसाद की अल्लहड़ता को भी देखा है। नीतीश की छवि इन सब से अलग भी है और मिलता-जुलता भी। ऐसे में आज सब की नजर नीतीश पर ही जा कर ठहर गई है।

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