इसमाद

Sunday, April 12, 2009

दो कदम आगे, तीन कदम पीछे

भाजपा को आखिर क्या हो गया है। एक अच्छी पार्टी अपने अतंद्वंद्व में फंसी हुई है। नारा हो या प्रस्तुतीकरण। हर जगह भ्रम दिखता है। 'मजबूत नेतृत्व- निर्णनायक सरकारÓ। भाजपा यह जानती है कि वह अकेले सरकार नहीं बना सकती। उसे गठबंधन की राजनीति करनी है। ऐसे में उसे अडवानी को समझौतावादी नेता की छवि प्रस्तुत करनी चाहिए थी। राजनीति में मजबूत का उलटा कमजोर नहीं होता। यहां मजबूत का अर्थ कट्टर या समझौता नहीं करनेवाला होता है। अडवानी और अलट में यही अंतर है। अटल एक समझौतावादी नेता हैं। वह मु्द्दों को बखूबी टाल देते थे। राजनीति में चुप रहना भी कभी-कभी बहुत बोलने का काम करता है। यह गुण भी अडवानी से कहीं अधिक अटल में है। कांग्रेस की कृपा से भाजपा को मुद्दों की कभी कमी नहीं रही। भाजपा के अंदर जो लोग उसकी मार्केंंिटंग का काम देखते हैं, उनकी समझ में ये बात शायद नहीं आती। यही कारण है कि भाजपा की छवि बदलने की छटपटाहट के बीच उसे उसी पुरानी सूरत में लोगों के सामने लाने का काम किया गया। बाजार का एक साधारण का नियम है। आदमी उसी वस्तु को उठाता है, जिसमें कुछ नया हो। भाजपा के पास बहुत कुछ नया है। उसका घोषणापत्र में उठाए गए कई मुद्दे भारत के प्रति उसकी गंभीर चिंतन का प्रस्तुत करता है। दुख इस बात की है कि इसके बावजूद जिस कागज से उसको लपेटा गया है, उस पर राम और अन्य विवादास्पद मुद्दे मौजूद हैं। 'नई शराव पुराने बोतल मेंÓ डालने की नीति समझ से परे है।

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