आशीष झा
भारतीय लोक पर्वों की अपनी विशेषता है। खासकर छठ जैसे पर्वों की। जिसमें समाज के सभी वर्गों की समान भागीदारी होती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि छठ जैसे लोकपर्व में भी कर्मकांडों का समावेश किया जा रहा है- जैसे मंत्र, पुरोहित और पूजा विधि। दरअसल छठ के लिए ऐसा कुछ भी अनिवार्य नहीं है। छठ को लेकर जितना भ्रम है शायद ही किसी और पर्व को लेकर भारत में इतना भ्रम देखने को मिलता हो। छठ की उत्पत्ति से लेकर इसके रिवाज तक में अर्थों की अधिकता के कारण पर्व की सार्थकता प्रभावित हो रही है। मुझे याद है कुछ साल पहले मेरे एक परिजन ने मुझसे सवाल किया था कि अगर छठ माता है तो फिर सूर्य को अर्घ क्यों दिया जाता है। उस समय मैं उनके सवाल का उत्तर नहीं दे सका और अध्ययन में जुट गया। छठ पर कोई पुख्ता जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं है, लेकिन लोकपर्व को लोगों की आस्था और मान्यताओं से जोड़कर जब लोककथा की आध्यात्मिकता से मिलान किया, तो कई बातें साफ हो जाती हैं। इसी क्रम में अंग के गांवों में बिखरी पड़ी लोक कथाओं को आपस में जोड़ कर जो कथा बनी वो प्रामाणिकता से नजदीक दिखी। शुरुआत छठ की शुरुआत से करें तो यह सर्वमान्य है कि इसकी शुरुआत महाभारत काल में हुआ। इस बात को लेकर भी आम धारणा है कि इसकी शुरुआत अंग प्रदेश से हुई, जो वर्तमान में बिहार का पूर्वी इलाका है। जहां से अर्थों की अधिकता दिखती है, वो है पर्व किस ने शुरू की। अंग प्रदेश की लोककथाओं से पता चलता है कि इस पर्व की शुरुआत सूर्य पुत्र कर्ण ने अपनी मां कुंती को छठी माता की मान्यता दिलाने के लिए की थी, जिसके तहत उन्होंने अपनी मां के लिए पिता सूर्य को अर्घ समर्पित किया था। दरअसल कुंती पांच पुत्रों की माता थी और छठी माता के रूप में उन्हें कलंकित होना पड़ा था। माता को कलंक से मुक्ति दिलाने के लिए कर्ण ने गंगा में सूर्य को अर्घ देना शुरू किया, जिसके बाद सूर्य कर्ण के पास आए और अंग की जनता के समक्ष उन्हें अपना पुत्र माना। इस प्रकार कुंती की पवित्रता कायम रही और वो कुंवारी मां के कलंक से मुक्त हो गई। इसी कारण मूल रूप से कलंक, दाग या आरोप से मुक्ति की कामना के लिए छठ का व्रत रखा जाता है। मिथिला क्षेत्र में ऐसी धारणाएं हैं कि छठ के दौरान पानी में खड़े होने मात्र से शरीर पर आए उजले दाग अथवा किसी प्रकार के चर्म रोग से छुटकारा मिल जाता है। इसके अलावा जो उद्देश्य बताए जा रहे हैं वो कमोवेश सभी पर्वों के पीछे होते हैं, जैसे बच्चों की चाहत, धन की प्राप्ति और शुख-शांति आदि।
छठ की बढ़ती लोकप्रियता का एक बड़ा कारण इसकी जातिरहित परंपरा है। इस पर्व को सभी जाति के लोग मना सकते हैं। चूंकि मिथिला या अंग के लोग शुरू से शाक्त (देवी के उपासक) रहे हैं, इसलिए वहां जाति का प्रभाव कम रहा है। यह अलग बात है कि अन्य कारणों से आज वहां जाति व्यवस्था मजबूत हो गई है। लेकिन धार्मिक आधार पर देखा जाए तो देवी के उपासक हर जाति के लोग हो सकते हैं और कोई भी शक्तिपीठ किसी के लिए बंद नहीं होता है। इस प्रभाव के अलावा इस पर्व को शुरू करनेवाले कर्ण भी शुद्र पुत्र के रूप में जीवन बिताया और उन्होंने इस पर्व को उन कर्मकांडों से अलग रखा जिसमें पुरोहितों की जरूरत होती है। लेकिन बाजारबाद के इस दौर में आधुनिक पुरोहितों ने अपनी दुकान चलाने के लिए छठ में कई कर्मकांडों को सम्मिलित कर लिया है। सभी जाति और धर्म के लिए समान रूप से उपलब्ध भगवान भाष्कर को इन नए पुरोहितों ने एक प्रकार से अलग-थलग करने का प्रयास किया है। इन पुरोहितों को बाजार का भी साथ मिल रहा है। क्योंकि इस पर्व में बाजार के लिए कुछ खास नहीं है। लेकिन इसकी लोकप्रियता ने बाजार को इसके पास आने को मजबूर कर दिया है। दरअसल छठ में उन्ही वस्तुओं का उपयोग किया जाता है, जो अंग के इलाके में पैदा होते हैं या बनाए जाते हैं। इन पुरोहितों की मदद से बाजार उसमें संशोधन करने लगा है। बांस की जगह आज तांबे, पीतल या फिर चांदी तक के सामान छठ घाटों पर दिखने लगे हैं। यह सर्वथा इस लोकपर्व की सामाजिकता के खिलाफ है। घमंड को शरीर से दूर करने के लिए जिस पर्व मे लोक भीख मांग कर छठ करने की कसम लेते हैं, वहां धन के आधार पर घाटों पर पीतल, तांबा और चांदी का प्रदर्शन कैसे संभव हो सकता है। इसी प्रकार बाजार की मदद से कुछ पुरोहित छठ के दौरान मंत्रों के उच्चारण की बात कह रहे हैं, जबकि छठ अंधे, बहरे, गूंगे तक करते रहे हैं। ऐसे में मंत्रों का रिवाज कब और कैसे शुरू हुआ पता नहीं चलता।
अब अंत में हिंदुओं का पर्व। यह सही है कि छठ हिंदुओं का पर्व है, लेकिन इसमें मुसलिम की भागीदारी भी कम नहीं है। यह अलग बात है कि वो अर्घ नहीं देते, लेकिन मिथिला के कई स्थानों पर यह रिवाज है कि अर्घ देने के लिए जिस दूध का इस्तेमाल होता है वह मुस्लिम समुदाय से ही खरीदा जाता है। कुल मिलाकर छठ एक ऐसा पर्व है, जिसमें न किसी जाति और न किसी धर्म के लोगों को सूर्य की आराधना करने से रोका जा सकता है। इसके लिए सिर्फ भावना की जरूरत है, न किसी भाषा की और न ही किसी मंत्र की। एक बात जो सबसे लिए समान रूप से जरूरी है वो है सूचिता अर्थात सफाई। छठ में बस आप तन-मन के अंदर-बाहर दोनों जगहों को जितना साफ कर लें उतनी अधिक आपकी मनोकामना पूरी होगी। नदी, तालाब या नहर नहीं मिले, तो बड़े से टब में पानी डाल कर कुछ देर खड़े हो जाएं, छठ माता को आपसे इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए। आइए... कर्मकांडियों से छठ को बचाएं।
7 comments:
अच्छी जानकारी दी छठ की.
Thanks for valuable information on CHHATH
अत्यंत प्रासंगिक आलेख..
bahut barhiyan..............
आइए... कर्मकांडियों से छठ को बचाएं।
achhi aur billkul sahi jankari. dhanyawad!
achhi aur billkul sahi jankari. dhanyawad!
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